सतगुरु की महिमा अनन्त

समुद्र में एक प्रकार की सीपी होता है, जो स्वाति नक्षत्र की वर्षा की एक बूंद के लिए सदा मुंह बाए पानी पर तैरती रहती है, किन्तु स्वाति की वर्षा का एक बिन्दु जल मुंह में पड़ते ही वह मुंह बन्द कर सीधे समुद्र की गहरी सतह में डूब जाती है तथा वहां उस जल-बिन्दु से मोती तैयार करती है। इसी तरह यथार्थ मुमुक्षु साधक भी सद्गुरु की खोज में व्याकुल होकर इधर-उधर भटकता रहता है, परन्तु एक बार सद्गुरु के निकट मंत्र पा जाने के बाद वह साधना के अगाध जल में डूब जाता है तथा अन्य किसी ओर ध्यान न देते हुए सिध्दिलाभ तक साधना में लगा रहता है।

ऐसे (साक्षात्कारी) गुरु यदि पण्डित या शास्त्रज्ञ न भी हो, तो घबराने का कारण नहीं। उन्होंने पुस्तकी विद्या भले ही न सीखी हो, पर उनमें यथार्थ ज्ञान की कभी कमी नहीं होती। पुस्तक पढ़कर भला क्या ज्ञान होगा? ऐसे व्यक्ति के निकट ईश्वरीय ज्ञान का अनन्त भण्डार होता है।

कोई व्यक्ति अपने गुरु के बारे में तर्क-वितर्क कर रहा था। श्रीरामकृष्ण ने उससे कहा, तुम फिजूल समय क्यों बरबाद कर रहे हो? तुम्हें इन सब बातों से क्या मतलब? तुम्हें मोती चाहिए, तो मोती लेकर सीपी को फेंक क्यों नहीं देते? गुरु ने जो मंत्र दिया है, उसे लेकर डूब जाओ, गुरु के गुण-दोषों की ओर मत देखो।

कोई तुम्हारे गुरु की निन्दा करता हो, तो कभी मत सुनो। गुरु माता-पिता से भी बड़े हैं। यदि कोई तुम्हारे सामने तुम्हारे माता-पिता की निन्दा करे, तो क्या तुम उसे सहन करोगे? यदि जरूरत पड़े, तो लड़कर भी अपने गुरु की मर्यादा को बनाये रखो।

सच्ची भक्ति हो, तो सामान्य वस्तुओं से भी ईश्वर का उद्दीपन होकर साधक भाव में विभोर हो जाता है। चैतन्य महाप्रभु की कथा सुनी नहीं? एक बार किसी गांव से गुजरते समय चैतन्यदेव ने सुना कि हरि-संकीर्तन में बजाने वाला मृदंग इसी गांव की मिट्टी से बनता है। सुनते ही वे बोल उठे-इसमिट्टी से मृदंग बनता है! और एकदम बाह्यज्ञान खोकर भावसमाधि में मग्न हो गये। इस मिट्टी से मृदंग बनता है, उस मृदंग को बजाते हुए हरिनाम गाया जाता है, वे हरि सब के प्राणों के प्राण हैं, वे सुन्दर के भी सुन्दर हैं! इस तरह की विचार-परम्परा एकदम क्षणमात्र में उनके चित्त में खेल गयी और उनका चित्त हरि में स्थिर हो गया।

इसी प्रकार, जिसमें गुरु के प्रति सच्ची भक्ति होती है, उसे गुरु के सगे-संबंधियों को देखकर गुरु का ही उद्दीपन होता है। इतना ही नहीं, गुरु के गांव के लोगों को देखने पर भी उसे उस प्रकार की उद्दीपन होती है और वह उन्हें प्रमाण कर उनकी चरणधूलि ग्रहण करता है, उन्हें खिलाता-पिलाता है, उनकी सेवाशुश्रूषा करता है।

दरअसल हम गुरु के उपकार को ठीक-ठीक नहीं जान सकते। ठीक वैसे ही जैसे छोटा-सा बालक अपनी माता के उपकार को नहीं जानता। वह नहीं जानता कि माता ने उसके लिए क्या कुछ किया है, कितनी पीड़ा सही है, कितनी सेवा की है। लेकिन जब वही बालक बड़ा होता है, तो वह माता के उपकार को जानने-समझने लगता है। लेकिन यह जानकर भी अपनी माता का सेवन करने वाले बहुत कम सौभाग्यशाली पुत्र होते हैं।

मैं कह रहा था कि माता-पिता का हम पर कितना उपकार है, यह बाल्यकाल में हम नहीं जानते। जवान होने पर जान जाते हैं, किन्तु कितने पुत्र ऐसे भी हैं, जो यह जानकार भी उनकी सेवा नहीं करते। ठीक उसी तरह गुरु महाराज के उपकार को भी हमलोग ठीक-ठीक नहीं जानते।

सन्त करीब साहब की वाणी देखिये, वे अपने गुरु के संबंध में क्या कहते हैं-

सतगुरु की महिमा अनन्त,

अनन्त किया उपकार।

लोचन अनन्त उघारिया,

अनन्त दिखावनहार।।

सतगुरु की महिमा अनन्त है, उनके उपकार का अन्त नहीं है। संसार में हम बहुत लोगों से उपकृत होते हैं, लेकिन गुरुदेव के समान और कोई उपकारी नहीं हैं। उनके गुणों का वर्णन कर पाना संभव नहीं है। संत कबीर साहब के वचन में ही आया-

सब धरती कागद करौं,

लेखनि सब बन राय।

सात समुंद की मसि करौं,

गुरु गुन लिखा न जाये।।

वे कहते हैं कि पूरी धरती को कागज, सम्पूर्ण समुद्र के जल को स्याही और बड़े-बड़े जंगलों में जितना भी लकड़ियां हैं, सबको कलम बना लूं, तब भी गुरु के गुणों को लिख पाना संभव नहीं होगा, उनके गुणों की समाप्ति नहीं होगी।

हमलोगों का अवश्य ही कुछ पुण्य रहा होगा कि ऐसे सन्त सद्गुरु के दर्शन, उनकी सेवा का अवसर हमें इस जन्म में भी प्राप्त हुआ। सद्गुरु ने अपनी शरण में हमें रखकर कृतार्थ किया।

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