चित्त को बंधनमुक्त करें

– ओशो

मनुष्य के मन पर शब्दों का भार है, और शब्दों का भार ही उसकी मानसिक गुलामी भी है और जब तक शब्दों की दीवार को तोड़ने में कोई समर्थ न हो, तब तक वह सत्य को भी न जान सकेगा, न आनंद को, न आत्मा को।

सत्य की खोज में३और सत्य की खोज ही जीवन की खोज है३स्वतंत्रता सबसे पहली शर्त है। जिसका मन गुलाम है, वह और कहीं भला पहंुच जाए, परमात्मा तक पहंुचने की उसकी कोई संभावना नहीं है। जिन्होंने अपने चित्त को सारे बंधनों से स्वतंत्र किया है, केवल वे ही आत्माएं स्वयं को, सत्य को और सर्वात्मा को जानने में समर्थ हो पाती हैं। इस संबंध में बहुत से प्रश्न आये। सबसे पहले एक मित्र ने पूछा कि यदि हम शब्दों से मौन हो जाएं, मन हमारा शून्य हो जाए, तो फिर जीवन का, संसार का व्यवहार कैसे चलेगा?

हम सभी को यही भ्रांति है कि मन हमारे जितने बेचैन और अशांत हों, संसार का व्यवहार उतना ही अच्छा चलता है। यह हमारा पूछना वैसे ही है, जैसे बीमार लोग पूछें कि यदि हम स्वस्थ हो जाएं, तो संसार का व्यवहार कैसे चलेगा?

पागल लोग पूछें कि हम यदि ठीक हो जाएं और हमारा पागलपन समाप्त हो जाए, तो संसार का व्यवहार कैसे चलेगा? बड़े मजे की बात यह है, अशांत चित्त के कारण संसार का व्यवहार नहीं चल रहा है, बल्िक संसार के चलने में जितनी बाधाएं हैं, जितने कष्ट हैं, संसार का जीवन जितना नरक है, वह अशांत चित्त के कारण है। यह जो संसार का व्यवहार चलता हुआ मालूम पड़ता है, इतने अशांत लोगों के साथ भी, यह बहुत आश्चर्यजनक है। शांत मन संसार के व्यवहार में बाधा नहीं है, बल्िक शांत मन इस संसार को ही स्वर्ग के व्यवहार में बदल लेने में समर्थ है। जितना शब्दों से मन शांत हो जाता है, उतनी ही जीवन में दृष्िट मिलनी शुरू हो जाती है। फिर भी हम चलेंगे, लेकिन वह चलना और तरह का होगा, फिर भी हम बोलेंगे, लेकिन वह बोलना और तरह का होगा, फिर भी हम उठेंगे, फिर भी जीवन का जो सामान्य क्रम है वह चलेगा, लेकिन उसमें एक क्रांति हो गई होगी। भीतर मन यदि शांत हो गया हो, तो दो परिणाम होंगे। ऐसे मन से जो चर्या निकलेगी, जो जीवन निकलेगा, वह दूसरों में अशांति पैदा नहीं करेगा। और दूसरे लोगों के अशांत व्यवहार की प्रतिक्रिया में ऐसे चित्त में कोई अशांित पैदा नहीं होगी, बल्िक उस पर फेंके गए अंगारे भी उसके लिए फूल जैसे मालूम होंगे और वह खुद तो अंगारे फेंकने में असमर्थ हो जाएगा। संसार में इससे बाधा नहीं पड़ेगी, बल्िक संसार को हमने अपनी अशांति के द्वारा करीब-करीब नरक के जैसा बना लिया है, उसे स्वर्ग जैसा बनाने में जरूर सहायता मिल जाएगी। और चंूकि हम आज तक मनुष्य के मन को बहुत बड़े सामूहिक पैमाने पर शांति के मार्ग पर ले जाने में असमर्थ रहे हैं, इसीलिए हमें अपना स्वर्ग आकाश में बनाना पड़ा। यह जमीन पर हमारे अशांत मन के कारण हमें स्वर्ग आसमान में बनाना पड़ा। यदि वह ठीक अर्थों में आदमी हो जाए तो जमीन बुरी नहीं है और उस पर स्वर्ग बन सकता है। स्वर्ग का और क्या अर्थ है? जहां शांत लोग हों, वहां स्वर्ग है, जहां भले लोग हों, वहां स्वर्ग है। सुकरात को उसके मरने के पहले कुछ मित्रों ने पूछा कि क्या तुम स्वर्ग जाना पसंद करोगे या नरक? तो सुकरात ने कहाः इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मैं कहां भेजा जाता हूं, मैं जहां जाऊंगा वहां मैं स्वर्ग का अनुभव करने में समर्थ हूं। मैं जहां जाऊंगा अपना स्वर्ग अपने साथ ले जाऊंगा।

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