-उषा वधवा-
कहने को मैं राधा को घर का सदस्य समान ही समझती थी, उस से भरपूर प्यार भी करती थी फिर भी मैं उस के दर्द को नहीं समझ पाई। कौन था जिस ने न केवल उस के साथ हुए अन्याय को समझा बल्कि पहली पांत बन कर उस की खुशियों को लौटाने की हिम्मत भी जुटाई?
खुशियों से भरे दिन थे वे। उत्साह से भरे दिन। सजसंवर कर रहने के दिन। प्रियजनों से मिलनेमिलाने के दिन। मुझ से 4 बरस छोटे मेरे भाई तनुज का विवाह था उस सप्ताह।
यों तो यह उस का दूसरा विवाह था पर उस के पहले विवाह को याद ही कौन कर रहा था। कुछ वर्ष पूर्व जब तनुज एक कोर्स करने के लिए इंगलैंड गया तो वहीं अपनी एक सहपाठिन से विवाह भी कर लिया। मम्मीपापा को यह विवाह मन मार कर स्वीकार करना पड़ा क्योंकि और कोई विकल्प ही नहीं था परंतु अपने एकमात्र बेटे का धूमधाम से विवाह करने की उन की तमन्ना अधूरी रह गई।
मात्र 1 वर्ष ही चला वह विवाह। कोर्स पूरा कर लौटते समय उस युवती ने भारत आ कर बसने के लिए एकदम इनकार कर दिया जबकि तनुज के अनुसार, उस ने विवाह से पूर्व ही स्पष्ट कर दिया था कि उसे भारत लौटना है। शायद उस लड़की को यह विश्वास था कि वह किसी तरह तनुज को वहीं बस जाने के लिए मना लेगी। तनुज को वहीं पर नौकरी मिल रही थी और फिर अनेक भारतीयों को उस ने ऐसा करते देखा भी था। या फिर कौन जाने तनुज ने यह बात पहले स्पष्ट की भी थी या नहीं।
बहरहाल, विवाह और तलाक की बात बता देने के बावजूद उस के लिए वधू ढूंढ़ने में जरा भी दिक्कत नहीं आई। मां ने इस बार अपने सब अरमान पूरे कर डाले। सगाई, मेहंदी, विवाह, रिसैप्शन सबकुछ। सप्ताहभर चलते रहे कार्यक्रम। मैं भी अपने अति व्यस्त जीवन से 10 दिन की छुट्टी ले कर आ गई थी। पति अनमोल को 4 दिन की छुट्टी मिल पाई तो हम उसी में खुश थे। बच्चों की खुशी का तो ठिकाना ही नहीं था। मौजमस्ती के अलावा उन्हें दिनभर के लिए मम्मीपापा का साथ भी मिल रहा था।
इंदौर में बीते खुशहाल बचपन की ढेर सारी यादें मेरे साथ जुड़ी हैं। बहुत धनवैभव न होने पर भी हमारा घर सब सुविधाओं से परिपूर्ण था। आज के मानदंड के अनुसार, चाहे मां बहुत पढ़ीलिखी नहीं थीं परंतु अत्यंत जागरूक और समय के अनुसार चलने वालों में से थीं। उन की इच्छा थी कि हम दोनों बहनभाई खूब पढ़लिख जाएं और इस के लिए वे हमें खूब प्रेरित करतीं।
स्नेह और पैसे की कमी नहीं रही हमें। शिक्षा, संस्कार सबकुछ पाया। घर का अधिकांश कार्यभार सरस्वती अम्मा संभालती थीं। पीछे से वे अच्छे घर की थीं। विपदा आन पड़ने पर काम करने को मजबूर हो गई थीं। अपाहिज हो गया पति कमा कर तो क्या लाता, पत्नी पर ही बोझ बन गया था।
सरस्वती अम्मा घरों में खाना बनाने का काम करने लगीं। हमारा गैराज खाली पड़ा था। मां के कहने पर उसी में सरस्वती अम्मा ने अपनी गृहस्थी बसा ली। एक किनारे पति चारपाई पर पड़ा रहता। अम्मा बीचबीच में जा कर उस की देखरेख कर आतीं। शेष समय हमारे घर का कामकाज देखतीं। अच्छे परिवार से थीं, साफसुथरी और समझदार। खाना मन लगा कर बनातीं। प्यार से बनाए भोजन का स्वाद ही अलग होता है। मां ने उन के दोनों बच्चों की पढ़ाई की जिम्मेदारी ले ली थी। स्कूल से लौटने पर वे उन्हें पास बिठा होमवर्क भी करा देतीं। बेटा 12वीं पास कर डाकिया बन गया। बिटिया राधा का
15 वर्ष की आयु में ही विवाह कर दिया। मां ने नाबालिग लड़की का विवाह करने से बहुत रोका किंतु परंपराओं में जकड़ी सरस्वती अम्मा के लिए ऐसा करना संभव नहीं था। उन के अनुसार अभी राधा का विवाह न करने पर वह जीवनभर कुंआरी रह जाएगी। लेकिन 1 वर्ष बाद ही कारखाने में हुई एक दुर्घटना में राधा के पति की मृत्यु हो गई। उसे मुआवजा तो मिला पर सब से बड़ी पूंजी खो दी उस ने। मां ने उस के पुनर्विवाह के लिए कहा। परंतु सरस्वती अम्मा के हिसाब से उन की बिरादरी में यह कतई संभव नहीं था।
इसी बीच मेरा भी विवाह हो गया। मैं ने कौर्पोरेट ला की पढ़ाई की थी और अपना कैरियर बनाना मेरे जीवन का सपना था। विदेशी कंपनी में एक अच्छी नौकरी मिली हुई थी मुझे। विवाह के बाद 2 वर्ष तक तो सब ठीक चलता रहा पर जब मां बनने की संभावना नजर आई तो चिंता होने लगी। कैरियर बनाने के चक्कर में पहले ही उम्र बढ़ चुकी थी एवं मातृत्व को और टाला नहीं जा सकता था।
शिशु जन्म के समय मां के पास इंदौर गई थी। अस्पताल से जब मैं नन्हे शिव को ले कर घर आई तो सरस्वती अम्मा ने एक सुझाव रखा, ‘क्यों न मैं राधा को अपने साथ ले जाऊं।’ उसे एक विश्वसनीय घर में रख कर वे निश्ंिचत हो जाएंगी। मेरी तो एक बड़ी समस्या हल हो गई, मन की मुराद पूरी हो गई। राधा को मैं बचपन से ही जानती आई थी। छोटी लड़कियों के अनेक खेल हम ने मिल कर खेले थे। वह मुझे बड़ी बहन का सा ही सम्मान देती थी। उस ने पहले शिव और 2 ही वर्ष बाद आई रिया की बहुत अच्छी तरह से देखभाल की और बच्चे भी उसे प्यार से मौसी कह कर बुलाते थे।
अनमोल जब घर पर होते तो यथासंभव हर काम में सहायता करते किंतु वे घर पर रहते ही बहुत कम थे। उन्हें दफ्तर के काम से अकसर इधरउधर जाना पड़ता और जब विदेश जाते तो महीनों बाद ही लौटते। यों अपने कैरियर के साथसाथ बच्चों को पालने और घर चलाने की पूरी जिम्मेदारी मुझ पर ही थी। राधा की सहायता के बिना मेरा एक दिन भी नहीं चल सकता था। बच्चों के बड़े हो जाने के बाद भी मुझे उस की जरूरत रहने वाली थी।
मैं उस की सुविधा का पूरा खयाल रखती थी। घर के एक सदस्य की तरह ही थी वह। यों वह रात को बच्चों के कमरे में ही सोती किंतु घर के पिछवाड़े उस का अपना एक अलग कमरा भी था।
तनुज के ब्याह के लिए मैं ने अपने परिवार वालों के साथसाथ राधा के लिए भी नए कपड़े बनवाए थे। पर ऐन वक्त उस ने इंदौर जाने से इनकार कर दिया जोकि मेरे लिए बहुत आश्चर्य की बात थी। अभी कुछ दिन पहले तक तो वह विवाह में गाए जाने वाले गीतों का जोरशोर से अभ्यास कर रही थी। वह जिंदादिल और मौजमस्ती पसंद लड़की थी। किसी भी तीजत्योहार पर उस का जोश देखते ही बनता था। अपने मातापिता से मिलने के लिए वह अकसर अवसर का इंतजार किया करती थी। पर इस बार न तो मांबाप से मिलने का मोह और न ही ब्याह की मौजमस्ती ही उसे लुभा पाई।
तनुज का विवाह बहुत धूमधाम से हो गया। हम ने भी 10 दिन खूब मस्ती की। लौट कर भी कुछ दिन उसी माहौल में खोए रहे, वहीं की बातें दोहराते रहे। राधा ने ही घर संभाले रखा। 2-3 दिन बाद जब मेरी थकान कुछ उतरी और राधा की ओर ध्यान गया तो मुझे लगा कि वह आजकल बहुत उदास रहती है। काम तो पूरे निबटा रही है किंतु उस का ध्यान कहीं और होता है। बात सुन कर भी नहीं सुनती। मांबाप की खोजखबर लेने को उत्सुक नहीं। विवाह की बातें सुनने को उत्साहित नहीं। पर बहुत पूछने पर भी उस ने कोई कारण नहीं बताया।
मैं ने काम पर जाना शुरू कर दिया था। यह चिंता नहीं थी कि मेरी अनुपस्थिति में बच्चों की देखभाल ठीक से नहीं होगी पर उस के मन में कुछ उदासी जरूर थी जो मैं महसूस कर सकती थी परंतु हल कैसे खोजती जब मैं कारण ही नहीं जानती थी।
इतवार के दिन मेरी पड़ोसिन ने मुझे अपने घर पर बुला कर बताया कि हमारी अनुपस्थिति में एक युवक दिनरात राधा के संग उस की कोठरी में रहा था।
मैं ने मां को फोन कर के पूरी बात बताई।
मां ने शांतिपूर्वक पूरी बात सुनी और फिर उतनी ही शांति से पूछा, ‘पर तुम उस पर इतनी क्रोधित क्यों हो रही हो? ऐसा कौन सा कुसूर कर दिया है उस ने?’
‘एक परपुरुष से संबंध बनाना अनैतिक नहीं है क्या? हमें तो आप कड़े अनुशासन में रखती थीं?’
‘तो इस में दोष किस का है? राधा के पति की असमय मृत्यु हो गई, यह उस का दोष तो नहीं? फिर इस बात की सजा इस लड़की को क्यों दी जा रही है? 16 वर्ष की आयु में उसे मन मार कर जीवन जीने को बाध्य कर दिया। उस के जीवन के सब रंग छीन लिए…’
‘पर मां, वह विधवा हो गई, इस में हम क्या कर सकते हैं?’
‘क्यों? उसे जीने का हक नहीं दिला सकते क्या? तनुज का दोबारा विवाह हुआ है न? तुम्हारे भाई के तलाक में कुछ गलती तो उस की भी रही ही होगी पर राधा के विधवा होने के लिए उसे क्यों दंडित किया जा रहा है? उस ने तो नहीं मारा न अपने पति को? यह तय कर दिया गया कि वह दूसरा विवाह नहीं करेगी। उस की जिंदगी का इतना अहम फैसला लेने से पहले क्या किसी ने उस से एक बार भी पूछा कि वह क्या चाहती है? हो सकता है उस में ताउम्र अकेली रहने की हिम्मत न हो और वह फिर से विवाह करने की इच्छुक हो। जिस पुरुष के साथ वह 1 वर्ष ही रह पाई वह भी तमाम बंदिशों के बीच, उस के साथ उस का लगाव कितना हो पाया होगा? और अब तो उस की मृत्यु को भी इतने वर्ष बीत चुके हैं।’
‘मां, मुझे उस पर दया आती है पर उन लोगों के जो नियम हैं, हम उन्हें तो नहीं बदल सकते न।’
‘पर ये कानून बनाए किस ने हैं? समाज द्वारा स्थापित नियमकायदे समाज नहीं बदलेगा तो कौन बदलेगा? और हम भी इसी का ही हिस्सा हैं।
‘तुम्हें क्या लगता है, तुम्हारी सुखी गृहस्थी देख कर उस की कभी इच्छा नहीं होती होगी कि उस का भी कोई साथी हो, जिस से वह मन की बात कह सके, अपने दुखसुख बांट सके। अपने बच्चे हों। यदि वह तुम्हारे बच्चे से इतना स्नेह करती है तो उसे अपने बच्चों की कितनी साध होगी, कभी सोचा तुम ने?
‘अपने भविष्य पर निगाह डालने पर क्या देखती होगी वह? एक अनंत रेगिस्तान। बिना एक भी वृक्ष की छाया के। मांबाप आज हैं, कल नहीं रहेंगे। भाई अपनी गृहस्थी में रमा है। सरस्वती की बिरादरी वाले जो राधा के पुनर्विवाह के विरुद्ध हैं, एक पुरुष के विधुर होने पर चट से उस का दूसरा विवाह कर देते हैं। तब वे कहते हैं कि बेचारे के बच्चे कौन पालेगा? स्त्री के विधवा होने पर उन की यह दयामाया कहां चली जाती है? यों हम कहते हैं कि स्त्री अबला है। सामाजिक, आर्थिक और भावनात्मक रूप से उसे पुरुष पर आश्रित बना कर रखते हैं किंतु विधवा होते ही उस से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अकेली ही इस जहान से लड़े। एक ऐसे समाज में जिस के हर वर्ग में भेडि़ए उसे नोच डालने को खुलेआम घूम रहे हैं।’
दिनभर तो काम में व्यस्त रही पर दफ्तर जाते और लौटते हुए मां की बातें मस्तिष्क में घूमती रहीं। मैं ने सिर्फ किताबी ज्ञान ही अर्जित किया था। मां ने खुली आंखों से दुनिया को जिया था, देखा और समझा था। मैं अपने ही घर में रहती राधा का दर्द नहीं समझ पाई। कहने को मैं उसे घर का सदस्य समान ही समझती थी। उस से भरपूर प्यार करती थी। मैं ने उस पर थोपे निर्णय को सिर झुका कर स्वीकार कर लिया था। जबकि मां उस के प्रति हुए अन्याय के प्रति पूर्ण जागरूक थीं।
मुझे मां की बातों में सचाई नजर आने लगी। सांझ ढलने तक मैं ने मन ही मन निर्णय ले लिया था और यही बताने के लिए दिनभर का काम समेट रात को मैं ने मां को फोन किया।
‘तुम उस लड़के से बात करो। उस की नौकरी, चरित्र इत्यादि के बारे में पूरी पड़ताल करो और यदि तुम्हें लगे कि लड़का सिर्फ मौजमस्ती के लिए राधा का इस्तेमाल नहीं कर रहा और इस रिश्ते को ले कर गंभीर है तो सरस्वती को मनवाने का जिम्मा मेरा,’ मां के स्वर में आत्मविश्वास की झलक स्पष्ट थी।
मैं ने जब राधा के सामने बात छेड़ी तो उस ने रोना शुरू कर दिया। बहुत देर के बाद उस ने मन की बात मुझ से कही।
रौशन हमारे घर से थोड़ी दूर किसी का ड्राइवर था। उसे राधा के विधवा होने के बारे में मालूम था फिर भी वह उस से विवाह करने को तैयार था। पर राधा को डर था कि उस की मां इस विवाह के लिए कभी राजी नहीं होंगी। एक तो वे अपनी बिरादरी से बहुत डरती थीं, दूसरे, रौशन उन से भिन्न जाति का था। राधा की परेशानी यह थी कि यदि उस ने मांबाप की इच्छा के विरुद्ध शादी कर ली तो वह सदैव के लिए उन से कट जाएगी। एक तरफ उस की तमाम जीवन की खुशियां थीं तो दूसरी तरफ मांबाप का प्यार। इसी बात को ले कर वह उदास थी। उस ने अब तक अपने मन की बात मुझ से कहने की हिम्मत नहीं की थी तो इस में मेरा ही कुछ दोष रहा होगा।
मैं ने रौशन के पिता को बात करने के लिए बुलाया। रौशन ने पहले से ही उन्हें राजी कर रखा था। सारी पड़ताल करने के बाद मैं ने मां के आगे एक सुझाव रखा, ‘सरस्वती अम्मा यदि विवाह के लिए राजी हो जाती हैं तो आप उन्हें ले कर यहां आ जाइए और राधा का विवाह चुपचाप यहीं करवा देते हैं। उस की बिरादरी वालों को पता ही नहीं चलेगा।’
मेरी कम पढ़ीलिखी मां की सोच बहुत आगे तक की थी। उन्होंने दृढ़तापूर्वक कहा, ‘नहीं, शादी यहीं से होगी और खुलेआम होगी ताकि उस जैसी अन्य राधाओं के आगे एक उदाहरण रखा जा सके। हम कुछ गलत नहीं कर रहे कि छिपा कर करें। मुझे इस युवक से मिल कर खुशी होगी जो यह जानते हुए भी कि राधा विधवा है, उस से विवाह करने को कटिबद्ध है। रौशन के जो भी परिजन विवाह में शामिल होना चाहें, उन का स्वागत है।’
‘सरस्वती अम्मा को तो तुम मना लोगी मां, पर यदि उस की जातिबिरादरी वालों ने कोई बखेड़ा खड़ा कर दिया तो?’ मैं अब भी हिम्मत नहीं कर पा रही थी शायद।
‘सेना जब युद्ध के मैदान में आगे बढ़ती है तो उस की पहली पांत को ही सर्वाधिक गोलियों का सामना करना पड़ता है। पर इस का अर्थ यह तो नहीं कि कोई आगे बढ़ने से इनकार कर देता हो। इसी तरह स्थापित किंतु अन्यायपूर्ण परंपराओं के विरुद्ध जो सब से पहले आवाज उठाता है उसे ही कड़े विरोध का सामना करना पड़ता है। फिर धीरेधीरे वही रीति स्वीकार्य हो जाती है। पर किसी को तो शुरुआत करनी ही पड़ेगी न।
‘पहली पांत ही यदि साहस नहीं करेगी तो समाज आगे बढ़ेगा कैसे? हमारे समय में पढ़ेलिखे घरों में भी विधवा विवाह नहीं होता था। बहुत सरल, चाहे अब भी न हो किंतु वर्जित भी नहीं रहा। विडंबना यह है कि अभी भी हमारे समाज के कई वर्ग ऐसे हैं जहां विधवा की दोबारा शादी नहीं हो पाती। शायद अकेली सरस्वती यह कदम उठाने की हिम्मत न जुटा पाए परंतु यदि हम उस का साथ देते हैं तो उस की शक्ति दोगुनी हो जाएगी।’
मैं इंदौर जा रही हूं। इस बार राधा को संग ले कर। जा कर इस के विवाह की तैयारी भी करनी है। आज से ठीक 5वें दिन रौशन आएगा इसे ब्याहने, पूरे विधिविधान के साथ।
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