-दिलीप कुमार सिंह-
एक साहित्यकार राजधानी में था राजधानी सबको जाना ही पड़ता है। मीडिया में जो खबरें बहुत दिनों से आ रही थीं। उनके वास्तविक मायने जानने की उसे उत्सुकता थी। वो भी उनको जानना चाहता था जो ये दावा करते रहते हैं कि वो सब कुछ जानते हैं। किसी ने काफी हाउस बुलाया और कहा कि यहीँ बैठो फिर आगे सोच-विचार करते हैं कि क्या करना है सर्वज्ञों को जानने के लिए। साहित्यकार वहाँ पहुंचा तो बहुत से लिपे-पुते चेहरे वहाँ बनाव-श्रृंगार किये खिलखिला रहे थे। उन्होंने काफी सर्व करने वाले लड़के से पूछा-“काफी मिलेगी” फिर एक झुण्ड की तरफ इशारा करते हुए पूछा
“इस खिलखिलाहट की वजह क्या है “?
उसने मुस्कराते हुए बताया-
“जी इसका नाम काफी हाउस है, मगर शाम को इस वक्त शायद ही कोई काफी मांगता है। लगता है आप यहां पहली बार आये हैं। और उधर हंसी-ठिठोली की वजह ये है कि आज व्रहस्पतिवार है ना”।
ये सुनते ही साहित्यकार का मन उन लोगों के प्रति श्रद्धा से भर गया। साहित्यकार ने उससे कहा-
“अच्छा तो ये लोग व्रहस्पतिवार की इतनी इज्जत करते हैं, आसपास कहीं पूजा-पाठ अवश्य हुआ होगा, तो अभी प्रसाद वितरण भी होगा।
काफी देने वाला लड़का फीकी हंसी हँसा और बोला-
“आप भी बिलकुल मूर्ख हैं क्या, ये बृहस्पतिवार का श्रद्धा या प्रसाद का मामला नहीं है, बल्कि वीरवार को इन लोगों के कुछ आंकड़े जारी होते हैं जिन्हें टीपीआर या टीआरपी या और कुछ कहते हैं, पक्के तौर पर नहीं जानता। अभी इन्हीं में से कोई पार्टी देगा कॉकटेल की और गाना बजेगा कि जुम्मेरात है, आजा साथ,, और सब डांस भी करेंगे”।
मुझे जिज्ञासा में देख कर वो बोला-
-“अरे ये लोग बिहार में जो बीमारी फैली है, वहां के अस्पतालों का दौरा, कवरेज करके आये हैं ऐसा सुनाई पड़ रहा है और अपने काम को डिसकस कर रहे हैं। ऐसा ही है कुछ “।
साहित्यकार सोच में पड़ गए कि केविन कार्टर महोदय ने जब सूडान में फोटो खींची थी, जिसे अकाल में दो-दो गिद्धों की फोटो की संज्ञा दी गयी थी। जब वो फोटो खींच रहे थे तब वो लड़की मरी नहीं था, अपना काम पूरा करके वो लौट पड़े क्योंकि उन्हें फोटो सबमिट करनी थी, वो उनका रोजगार था, उससे उनकी रोटी चलनी थी, भले ही कार्टर ने सूडान में जब वो फोटो खींची थी, तब शायद मीडिया की टीआरपी नहीं थी, सैलरी थी, पैकेज नहीं वरना वो गिद्ध के मुंह में माइक लगा देते और पूछते कि आप इनको कैसे खाएंगे, आपके खाने में कोई राजनैतिक एजेंडा तो नहीं है।चिड़ियों की भाषा अगर वो ना समझ पाते तो उस बच्चे से पूछते “कि तुम इस अकाल में कब दम तोड़ोगे, कितनी देर और जियोगे, मरने के पहले क्या तुम गिद्ध को अनुमति दोगे या दफनाये जाना चाहोगे।इस देश के शासक के खिलाफ कोई स्टेटमेंट देना चाहोगे”।
लेकिन ऐसा नहीं था केविन कार्टर सिर्फ अपनी ड्यूटी कर रहे थे, फोटो खींची चलते बने, किसी ने उन्हें उस दिन का दूसरा गिद्ध कहा तो उन्हें उनके फोटो पत्रकारिता के धर्म से बड़ा मानवता का धर्म याद आया सो वो अवसाद में चले गए और अंततः अपने को दोषी मानकर ख़ुदकुशी कर ली। लेकिन ये कोई और दौर है, जब एंकर की ट्रेनिंग के अलावा तीन महीने के अभिनय की भी ट्रेनिंग लोग लेते हैं, बड़े पर्दे या सास बहू सीरियल में अभिनय करने का अवसर नहीं मिलता तो गिद्धिस्तान में नौकरी कर लेते हैं। गिद्धिस्तान एक बहुत आधुनिक स्थान माना जाता है और हिंदुस्तान में बहुतायत पाये जाते हैं। तेज रोशनी, तेज तर्रार लोग, तेजी से बढ़ते विज्ञापन, तेजी से बढ़ते चेक में जीरो की संख्या, तेज-तेज दौड़ने की धुन, सबसे आगे रहने की होड़ भले ही उसके लिए गिद्ध बन जाना पड़े।यहां बताया जाता है कि भले ही तुम्हारा रोजगार कुछ भी हो, लेकिन गिद्ध के कुछ गुणों से तुम्हें प्रेरणा लेनी चाहिये। गिद्धों के लिये, अपने फायदे के लिये किसी भी बात का परहेज नहीं होता, जब अहिरावण राम लक्ष्मण को उठा ले गया था, तब मादा गिद्ध ने कहा कि-
मैं गर्भवती हूँ, मुझे भोजन चाहिये”।
वैसे तो वो गिद्ध था, सब जानता था, जटायु और राम को भी, और उनके सम्बन्धों को भी, लेकिन मांस भक्षण उसका स्वभाव था और आवश्यकता भी। सो उसने मादा गिद्ध से कहा- “चिंता मत करो, अभी अहिरावण राम लक्ष्मण की बलि चढ़ायेगा, तब मैं तुम्हें ताजा मांस खिलाऊंगा। मुझे अपना, अपनी पत्नी और होने वाले बच्चे का पेट पालना है सो मैं ऐसा करूंगा। मेरी वंश वृद्धि हो, वंश फूले फले, भले ही मांस किसी का हो। वैसा ही गिद्धिस्तान के लोग सोचते हैं कि कब वो सैलरी से पैकेज पर पहुंचे और उसके बच्चों का विकास नक्की हो वो खिलखिलाएं, भले ही उनके बच्चों की खिलखिलाहट किसी बच्चे की घुटी-दबी चीख से ना निकली हो। गिद्धिस्तान के कई लोग चोला बदल बदल कर पहुंच रहे हैं कोई आंसू पोंछने का तैयार नहीं बस सबको आँसू गिनने हैं, कितने लोगों के कितने आँसू बहे उनको सबका हिसाब रखना है।उन दिवंगत बच्चों जैसे कोई कह रहा हो
“इस चढ़ाव से चढ़ न सकोगे
इस उतार से जा ना सकोगे
तो तुम मरने का घर ढूंढ़ो
जीवन पथ अपना ना सकोगे”
और सच में वो बच्चे खर्चों का पहाड़ चढ़ ना सके क्योंकि उन्हें तर्कों, आंकड़ों में जीवन देने की कोशिश की गयी थी। किसी ने उनकी मौत के लिये फोर जी को ज़िम्मेदार बताया, तो कोई उन कराह रहे बच्चों की चीखों के बीच ही फोर जी पर क्रिकेट का स्कोर पता कर रहा था। सबके अपने अपने तर्क थे, कोई कह रहा था कि बरसात आते ही सब ठीक हो जायेगा, सब कुछ धुल जाएगा। वहीं अस्पताल के बाहर राजेंद्र बाबू की आत्मा फैज़ की नज्म लिये हाथ में बैठे थे, और उसे अपने आंसुओं से सरोबार कर रहे थे जिसपे लिखा था।
“खून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद”
उनके पीछे जय प्रकाश नरायन की भी आत्मा भी रो ही रही थी। उन्होंने राजेंद्र बाबू के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा
“अब नजर ना आयेगी, बेदाग़ सब्ज़ा की बहार”। उनके ऐसा ही कहते ही राजेन्द्र बाबू और जय प्रकाश नारायण आपस में लिपट कर रोने लगे। गिद्धिस्तान के कुछ परिंदों ने अस्पताल में मरते हुए बच्चों को नहीं बख्शा अपने फायदे के लिये। बीमारी से तो कुछ ही बच्चे मरे हैं लेकिन आने वाले दिनों में भुखमरी से बहुत लोग मरेंगे क्योंकि लीची फल को इन लोगों ने जहर का पर्याय बना दिया है, जिससे कितने लोग बर्बाद हो जायेंगे। गिद्धिस्तान को इससे फर्क नहीं पड़ने वाला। एक छद्म सेक्युलर ने कहा है कि “मोदी जी ने जापानी ट्रेन चलायी उसी पर बैठ कर आयी होगी ये जापानी इन्सेफ्लिइट्स।” मैं उनके तर्क से अवाक हो गया। वैसे तो वो नास्तिक हैं मगर उन्होंने रामचरित मानस की एक चौपायी सुनायी
“जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी
सो नृप अवसि नरक अधिकारी”
यानी इस सबके लिये जो शासक हैं वही जिम्मेदार हैं। और एक दूसरे सज्जन ने कहा-
“हमारा काम है दिखाना, हम दिखाएंगे। हम क्या दिखाएंगे, कहाँ तक दिखाएंगे ये हमीं तय करेंगे।हम कहीं भी जा सकते हैं कुछ भी ले जा सकते हैं। किसी से कुछ भी पूछ सकते हैं उसे डांट-फटकार उलाहना दे सकते हैं।”
फिर नशे के सुरुर में उन्होंने कहा-
“हम तो किसी ना किसी को प्रोमोट करते रहते हैं।
साहित्यकार की आँखें छलक गयी वो भीगे स्वर में बोला-
“आप डेथ टूरिज्म करने गए थे क्या। आप के जाते ही वहाँ मौत को देखने बहुत लोग पहुंच रहे हैं “
उन्होंने उस साहित्यकार को गन्दी सी गाली दी और नशे में उलट गये। साहित्यकार ने उन्हें खड़ा किया और फफक फफक कर रोते हुए उनसे बोला-
“तुम्हारे शहर में कुछ भी नहीं हुआ है क्या
कि चीखें तुमने सच में नहीं सुनी हैं क्या “
क्या आपने ये चीखें सुनी हैं, सुनी है तो रो लीजिये, क्योंकि गिद्धिस्तान के लोग कुछ गिनने में व्यस्त हैं, ना जाने क्या।
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