जनाक्रोश के मध्य राजनेताओं के विवादित बोल

-निर्मल रानी-

भारतीय संसद में पिछले दिनों जब से नागरिकता संशोधन विधेयक पेश किया गया और उसके बाद इस विधेयक को संसद के दोनों सदनों में पारित करवाकर इसे क़ानून का रूप दिया गया है तब ही से इस विधेयक व अब क़ानून का विरोध राष्ट्रीय स्तर पर बड़े पैमाने पर हो रहा है। इसी से जुड़े राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर को लेकर भी असम, पश्चिमी बंगाल व पूर्वोत्तर के कई राज्यों में काफ़ी विरोध प्रदर्शन हुए और अब भी हो रहे हैं। राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर व नागरिकता संशोधन क़ानून का विरोध अब विशेष कर देश के छात्र समुदाय द्वारा किया जा रहा है। देश के एक दर्जन से भी अधिक विश्वविद्यालय व महाविद्यालय के छात्र इन विरोध प्रदर्शनों में सड़कों पर उतर रहे हैं। गत दिनों राजधानी दिल्ली में स्थित जामिया मिलिया इस्लामिया में इसी संबंध में हुआ प्रदर्शन हिंसक हो गया। परिणाम स्वरूप कई वाहनों में आग लगा दी गयी। विरोध प्रदर्शन की ख़बरें देश के और भी कई विश्वविद्यालयों से भी प्राप्त हुई हैं। देश के छात्र तथा आम लोग राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर व नागरिकता संशोधन क़ानून के क्यों ख़िलाफ़ हैं, इसका विरोध करने वाले इन क़ानूनों को क्यों संविधान विरोधी बता रहे हैं, इन क़ानूनों से देश के संविधान की मूल आत्मा कैसे आहत हो रही है, किस प्रकार से यह क़ानून अल्पसंख्यक विरोधी व “वसुधैव कुटुंबकम” व सर्वे भवन्तु सुखनः जैसे मूल भारतीय सिद्धांतों के विरुद्ध है, इन विषयों पर गंभीर चर्चा व चिंतन करने के बजाए सत्ता की ओर से तरह तरह के ग़ैर ज़िम्मेदाराना बयान दे कर इन्हें और अधिक उलझाने की कोशिश की जा रही है। एक तरफ़ तो जामिया विश्वविद्यालय के छात्र तथा वहां का प्रशासन जबरन व बिना विश्वविद्यालय प्रशासन की अनुमति के पुलिस के कैंपस में घुसने व छात्रों व छात्राओं से बर्बरता पूर्ण तरीक़े से पेश आने के आरोप लगा रहे हैं। जबकि पुलिस यह दावे कर रही है कि हिंसा व उपद्रव में शामिल लोग बाहरी असामाजिक तत्व हैं तो दूसरी ओर यही पुलिस बाथरूम, शौचालय, पुस्तकालय तथा छात्रावास के कमरों में घुस घुस कर छात्रों की बर्बर पिटाई कर रही है। निश्चित रूप से विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा ग्रहण करने वाले छात्र देश का भविष्य समझे जाते हैं। आज देश की बागडोर जिन लोगों के हाथों में है उनमें से भी अधिकांश लोग किसी न किसी विश्वविद्यालय से ही निकल कर देश सेवा कर रहे हैं। ऐसे छात्रों के साथ पुलिस की बर्बर कार्रवाई, बिना विश्वविद्यालय प्रशासन की अनुमति के कैंम्पस में प्रवेश, सादे लिबासों में दिल्ली पुलिस का छात्रों व छात्राओं पर लाठियाँ बरसाना, और कुछ वाहनों में आग लगते हुए दिखाई देते वर्दीधारी लोगों की वॉयरल वीडीओ अनेक सवाल खड़े करती है। परन्तु इन बातों का संतोषजनक उत्तर व समस्या का सर्वमान्य हल ढूंढने के बजाए विषय को साम्प्रदायिक, राजनैतिक तथा पूर्वाग्रह से प्रेरित बताकर नेताओं द्वारा ऊट पटांग बयान बाज़ियां की जा रही हैं। उदाहरण के तौर पर केंद्रीय रेल राज्य मंत्री सुरेश अंगड़ी का मत है कि नागरिकता संशोधन क़ानून के विरुद्ध प्रदर्शन करने वाले देश की अर्थव्यवस्था को अस्थिर करने के लिए अनावश्यक रूप से समस्याएं खड़ी कर रहे हैं। रेल राज्य मंत्री ने यहाँ तक कह दिया कि – ”मैं सभी ज़िला प्रशासन और रेलवे अथॉरिटी को एक मंत्री के तौर पर आदेश देता हूं कि अगर कोई रेलवे समेत किसी भी पब्लिक प्रॉपर्टी को नुक़सान पहुंचाता है तो उसे देखते ही गोली मार दी जाए।” मंत्री महोदय के इस बयान की काफ़ी आलोचना की गयी तथा इसे असामयिक भड़काने वाले बयान के रूप में देखा गया। इसी प्रकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी जहाँ नागरिकता संशोधन क़ानून को हज़ार फ़ीसदी सही बताया वहीं इससे संबंधित विरोध प्रदर्शनों में कांग्रेस पार्टी का हाथ बताया। उन्होंने कहा कि -“कांग्रेस के कारनामों को देखकर पता चल रहा है। पूरे देश में जहां-जहां आगज़नी कराई जा रही है, यह राजनीति से प्रेरित और पूरी तरह प्रायोजित है। आग लगाने वाले कैसे कपड़े पहने हैं, क्‍या बातें कर रहे हैं, यह देखकर कोई भी पता कर सकता है कि आख़िर ये कौन लोग हैं। मोदी ने कहा कि पहले जो खेल पाकिस्‍तान के पैसे से हो रहा था, वही खेल अब कांग्रेस करवा रही है”। राजनैतिक विश्लेषक प्रधानमंत्री की इस बात का निष्कर्ष ही नहीं निकाल पा रहे हैं कि मोदी का यह बयान कि ‘आग लगाने वाले कैसे कपड़े पहने हैं’ इस बयान के मायने आख़िर हैं क्या? ‘कपड़ों से पहचान’ का ज़िक्र कर प्रधानमंत्री जैसे सर्वोच्च पद पर बैठा राजनेता आख़िर कहना क्या चाहता है। वहीं गृह मंत्री अमित शाह ने भी साफ़ कर दिया है कि विपक्ष को जितना विरोध करना है करे, लेकिन नया नागरिकता क़ानून लागू होगा। गोया अपने विरोध या नाकामी अथवा अपने विरुद्ध फैले किसी भी जनाक्रोश को कांग्रेस समर्थित या पाकिस्तान समर्थित बताना सत्ताधारी नेताओं की फ़ितरत नहीं बल्कि नीतियों में शामिल हो चुका है। और यह भी कि बहुमत के नशे में चूर दिल्ली दरबार किसी भी जनाक्रोश की चिंता या संविधान की फ़िक्र करने के बारे में सोचना नहीं चाहता। दूसरी ओर दिल्ली भाजपा के नेता जो निकट भविष्य में दिल्ली विधानसभा चुनाव का सामने करने वाले हैं उन्हें इन सब विरोध प्रदर्शनों में कांग्रेस का नहीं बल्कि आम आदमी पार्टी का हाथ नज़र आ रहा है। वह हिंसा भड़काने के लिए सीधे दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल को दोषी ठहरा रहे हैं। अर्थात भाजपा नेता चूँकि राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस को चुनौती मानते हैं इसलिए नरेंद्र मोदी व अमित शाह जैसे नेता तो इन हालत के लिए कांग्रेस को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं परन्तु दिल्ली स्तर के नेताओं को संभवतः अरविन्द केजरीवाल व आम आदमी पार्टी पर निशाना साधने का निर्देश दिया गया है तभी वे दिल्ली की हिंसा व प्रदर्शनों के लिए अरविन्द केजरीवाल व आम आदमी पार्टी को ज़िम्मेदार बता रहे हैं। आरोप प्रत्यारोप तथा नेताओं के ऐसे विवादित बयानों के मध्य न केवल छात्र बल्कि देश की वह आम जनता भी पिस रही है जो इन आंदलनों व प्रदर्शनों से प्रभावित हो ही है। इसलिए देश में कोई भी साम्प्रदायिकतावादी क़ानून लाने से पहले इसपर राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक बहस होनी चाहिए। बहुमत का अर्थ यह नहीं कि आप देश के संविधान व देश की मूल आत्मा पर प्रहार करने लग जाएं। और अपने गुप्त हिंदूवादी एजेंडे को बहुमत के नाम, पर देश पर थोपने का प्रयास करें। हिँसा व उपद्रव निश्चित रूप से बुरी व निंदनीय है। परन्तु जनाक्रोश के मध्य इस सन्दर्भ में बोले जाने वाले नेताओं के विवादित व अमर्यादित बोल भी क़तई मुनासिब नहीं।

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