यह अग्निकांड नहीं, हत्या है

आश्चर्य है कि देश की राजधानी दिल्ली के पुराने शहर बारूद और मौत के ढेर पर हैं। दिल्ली के अधिकतर पुराने शहरों की तंग गलियों में अवैध कारोबार कुकुरमुत्ते की तरह फैले हैं। कभी चांदनी चौक के कपड़ा बाजार में आग लगती है, तो कई दुकानें राख हो जाती हैं। कभी सदर बाजार की झुग्गी-झोंपडि़यां जलती हैं, तो फिर अनहोनियां होती हैं। देश की राजधानी आज भी 1997 के ‘उपहार’ सिनेमा अग्निकांड को नहीं भूली है, जिसमें 59 मासूम दर्शक फिल्म देखते-देखते जल गए और खाक हो गए थे। दिल्ली के इन ‘लाक्षागृहों’ को क्या कहेंगे? क्या यह त्रासद चेहरा ही दिल्ली की असलियत है? जिस राजधानी में देश की संसद और सरकार है, सर्वोच्च न्यायालय है, विभिन्न देशों के दूतावास और उच्चायोग हैं और दिखाने-बताने को बहुत कुछ है, उसी राजधानी के एक पुराने शहर फिल्मिस्तान इलाके में देखते-देखते इनसान जलकर मर जाते हैं, तो किसी का दम घुटने से मौत हो जाती है। कुछ अस्पताल तक पहुंच कर जिंदगी की जंग हार जाते हैं। मौत का आंकड़ा 43 है, जो बेहद खौफनाक है। यह सिर्फ अग्निकांड नहीं है, बल्कि परोक्ष रूप से हत्या है। फिल्मिस्तान इलाके में कभी अनाज मंडी होती थी, लेकिन आज वहां की दड़बेनुमा, बंद इमारतों में कपड़े, गत्ते बनाने, सिलाई, जूते और नोटपैड आदि बनाने की ‘मौत की फैक्टिरयां’ चल रही हैं-सब कुछ अवैध और अनधिकृत…! उन इमारतों में रोशनदान नहीं हैं, आग से बचाने के उपकरण नहीं हैं, फैक्टरी-रसोई और सोने के कमरे में कोई फर्क नहीं है। जीवन की तमाम गतिविधियां एक ही कमरे में…! मजदूर और गरीब की अभिशप्त विवशता है! फिल्मिस्तान इलाके में 43 मासूम लोग मारे गए और 22 घायल हैं, जिनका उपचार अस्पतालों में जारी है। यह सब कुछ हुआ है देश की सर्वोच्च व्यवस्था की नाक के तले…! यह घोर त्रासदी नहीं है, तो फिर क्या है? दिल्ली के पुराने शहर न तो भाजपा और न ही कांग्रेस-‘आप’ की देन हैं। ये प्राचीन वक्त की निशानदेहियां हैं, लेकिन बार-बार जो आग धधकती है और लपटें इनसानी जिंदगी को राख करती रही हैं, आखिर उनकी जिम्मेदारी और जवाबदेही तो किसी की होगी! फिल्मिस्तान इलाके के मौजूदा त्रासद हादसे को लेकर मुख्यमंत्री केजरीवाल की सत्तारूढ़ ‘आप’ और दिल्ली नगर निगम में सत्तासीन भाजपा एक-दूसरे पर ही सवाल उठा रहे हैं। इलाके में दो मंजिला इमारत के स्थान पर पांच मंजिला इमारत कैसे खड़ी कर दी गई? उस आवासीय इमारत में कारोबार करने का लाइसेंस किसने दिया? हाईवोल्टेज बिजली के खुले-नंगे तारों का मकड़जाल आज भी क्यों है? फायर विभाग का अनापत्ति प्रमाण-पत्र नहीं था, तो मौजूदा कारखाना क्यों चल रहा था? ऐसी अवैध इमारत में बिजली का मीटर कैसे लग गया? ऐसे कई सवाल हैं, जो दिल्ली सरकार नगर निगम पर और विपक्षी भाजपा केजरीवाल सरकार पर मढ़ रही है। क्या हमारी व्यवस्था का चरित्र यही है? दिल्ली में ही बवाना की पटाखा फैक्टरी और करोल बाग के होटल की त्रासदियों को अभी तक भूला नहीं गया है। व्यापारियों और प्रशासन की मिलीभगत और भ्रष्ट मंसूबों को आखिर वह मजदूर, गरीब क्यों झेले, जो सैकड़ों किलोमीटर दूर बिहार से रोजी-रोटी कमाने के लिए दिल्ली आता है। मौत के लम्हों में किसी ने कांपती आवाज में अब्बा को फोन किया, तो किसी ने मां से गुहार की-मुझे बचा लो, तो किसी ने रोते हुए पत्नी को फोन पर खबर दी-आग में फंस गया हूं, बच नहीं पाऊंगा।’’ बहरहाल जिनकी जिंदगी का पटाक्षेप होना था, हो चुका है। फैक्टरी मालिक और उसके भाइयों को गिरफ्तार किया जा चुका है। उनके खिलाफ गैर इरादतन हत्या का केस दर्ज किया गया है। उनके जरिए कितने सरकारी और अधिकृत चेहरे बेनकाब होंगे, अब यह देखना है। इस हत्याकांड से भी कितने और कौन सबक लेता है, यह देखना भी महत्त्वपूर्ण होगा। अलबत्ता अभी तक तो ये सिलसिले यूं ही जारी रहे हैं।

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