बांग्लादेशी घुसपैठियों का मुद्दा पुराना है। जब यह पाकिस्तान का हिस्सा था, तब भी घुसपैठिए सीमावर्ती राज्यों में घुसते थे, लेकिन अब मामला रोहिंग्या मुसलमानों तक विस्तृत हो गया है। वे पड़ोसी देश म्यांमार से भागकर भारत में घुस रहे हैं। यह कितना संवेदनशील और खतरनाक मुद्दा है, इसका विश्लेषण अलग से करेंगे, लेकिन फिलहाल चिंता और सरोकार घुसपैठियों को लेकर है, जो भारत को ‘सराय’ (धर्मशाला) समझते रहे हैं और बीते वक्त के मुताबिक उन्होंने अपने वैध और सरकारी दस्तावेज भी बनवा लिए हैं। उनके पास आधार कार्ड, मतदाता पहचान पत्र, राशन कार्ड और अन्य दस्तावेज हैं, जिनके आधार पर वे भारत का अधिकृत नागरिक होने का कानूनी दावा कर सकते हैं। राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) एक ऐसी ही प्रक्रिया है, जिसके जरिए घुसपैठियों की पहचान और देश से बेदखली संभव है। बेशक यह आरएसएस और जनसंघ का पुराना मुद्दा रहा है। जनसंघ के बाद भाजपा का स्वरूप सामने आया, तो उसने भी इस मुद्दे को धारण किया, लेकिन सरकार और न्यायपालिका के स्तर पर इसे ‘हिंदू-मुसलमान’ करार देना दुराग्रह है, असंवैधानिक है। चूंकि गृहमंत्री अमित शाह ने राज्यसभा में साफ कहा है कि एनआरसी को अंततः पूरे देश में लागू किया जाएगा। इसके मायने ये नहीं हैं कि सांप्रदायिक आधार पर छंटनी और पहचान होगी। यह प्रक्रिया सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में जारी है। असम में भी एनआरसी की अंतिम सूची में जो 19 लाख से ज्यादा नाम बाहर किए गए हैं, उन्हें एकदम ‘घुसपैठिया’ करार नहीं दिया जा सकता। उनमें लाखों नाम हिंदू और उससे जुड़े हुए हैं, लेकिन गृहमंत्री के बयान की प्रतिक्रिया में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा था कि हम इसे लागू नहीं करेंगे। एनआरसी लागू करने से देश में ‘गृहयुद्ध’ के हालात पैदा हो सकते हैं। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी यह चेतावनी कैसे दे सकती हैं? यदि संसद एक केंद्रीय कानून पारित करती है, तो बंगाल उसे लागू करने से इनकार कैसे कर सकता है? आखिर सुप्रीम अदालत ने इस बाबत फैसला क्या दिया था? मुद्दा महज घुसपैठियों, एनआरसी और नागरिकता का ही नहीं है। नागरिकता एक भिन्न मुद्दा है, जो भारत सरकार पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश में उत्पीडि़त हिंदू, जैन, बौद्ध, सिख, ईसाई, पारसी इन छह समुदायों को भारत में शरण लेने पर देना चाहती है। यह नागरिकता की प्रचलित और संवैधानिक परिभाषा से भिन्न है, लिहाजा संसदीय संशोधन अनिवार्य है। घुसपैठिए आतंकवाद का प्रतिरूप भी हैं। उनके पाकिस्तान की कुख्यात खुफिया एजेंसी आईएसआई से संबंध और समीकरण देखे गए हैं। आज घुसपैठिए बांग्लादेशी दिल्ली, नोएडा, ग्रेटर नोएडा के घर-घर तक ‘सेवक’ के तौर पर फैल गए हैं। बांग्लादेशी औरतें घरों में ‘कामवाली’ हैं और पुरुष रिक्शा चलाते हैं या दुकानों, ढाबों में काम करते हैं। उन्हें आमतौर पर ‘बंगाली’ कहा जाता है, लेकिन भारतीय बंगाली या घुसपैठिए बांग्लादेशी…! यह एनआरसी की प्रक्रिया से ही स्पष्ट होगा। विडंबना है कि आज तक बांग्लादेश ने अधिकृत तौर पर कबूल नहीं किया है कि उसके नागरिक भारत में आते रहे हैं। लिहाजा इस संदर्भ में राष्ट्रीय सहमति होनी चाहिए, केंद्र सरकार सभी राज्य सरकारों से बात करे, संसद में भी एनआरसी की एक राष्ट्रव्यापी प्रक्रिया पारित की जानी चाहिए, बल्कि इसे सरकार एक राष्ट्रीय अभियान बनाए और फिर एनआरसी पर काम किया जाना चाहिए। यह एक बेहद गंभीर विषय है, क्योंकि हमारी सुरक्षा पर आसन्न खतरों के मद्देनजर इसे धारण किया गया है। यदि यह सिर्फ सियासत के लिए किया जाना है, तो फिर देश में अराजकता के हालात जरूर होंगे, क्योंकि आम सहमति नहीं है। असम के प्रयोग में कई गंभीर विसंगतियां सामने आई हैं, लिहाजा देश भर में लागू करना आसान खेल नहीं है। यह प्रक्रिया टुकड़ों-टुकड़ों में 1951 से जारी रही है। जनगणना के दौरान भी सर्वे किए जाते रहे हैं और चुनाव आयोग भी ऐसे अभियान चलाता रहा है, ताकि बुनियादी डाटा मिलता रहे कि इस देश का मूल और वैध नागरिक कौन है। एनआरसी की सर्वसम्मत प्रक्रिया इसलिए जरूरी लगती है, ताकि घुसपैठिए यह धारणा न पाल लें कि भारत तो एक ‘सराय देश’ है।
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