कहानीः भिक्षा

-मीरा शलभ

द्वार पर लगातार थपथपाने की आवाज भीतर तक आ रही थी, किंतु दुर्बल निम्मो सुनकर भी अनसुनी सी कर रही थी। आखिरकार जब बहुत समय तक बिना रुके कोई दरवाजा थपथपाता रहा तो भला कहां तक निम्मो चुप्पी साधे रहती। कराहते हुए बोली कौन है भाई… भीतर चले आओ … दरवाजा खुला है।

भिक्षा दोगी मांई… बाहर से ही दो मिले जुले स्वर एक साथ ही वातावरण में गूंजे… ये स्वर नवयुवतियों के से जान पड़ते थे। निम्मो कुछ व्यंग्यात्मक एवं मर्मात्मक हंसी में बोली… भिक्षा? क्या भिक्षा दूं ?

“हां माई आ जाओ। थोड़ी भूख और थोड़ी गरीबी तुम भी ले लो। इसके सिवाय और कुछ नहीं है मेरे पास।” ये सब कहते-कहते निम्मो स्वयं को लगभग घसीटते हुए कमरे से आंगन तक आ पहुंची। उसने देखा दरवाजे पर दो बीस-बाईस वर्ष की नवयुवतियां खड़ी थीं। दोनों ने ही अपने-अपने मुख पर एक चिप्पी नुमा श्वेत रूमाल चिपका रखा था। वे दोनों ही श्वेत रंग के साड़ी ब्लाउज पहने हुए थीं। देखने में दोनों जैन साध्वी सी जान पड़ती थीं।

निम्मो उन्हें देखते ही फूट सी पड़ी। “क्या दूं बिटिया… तुम्हें क्या दूं। जिस घर के मरद शराब पी कर जुआ खेलकर अपनी घरवाली की कमाई पर ऐश उड़ाते हों, उन्हें दिन रात कारण अकारण पीटते हों, उनका सौदा कर अपनी मर्दानगी दिखाते हों, उस घर की गृहस्थिन के पास उसके बदन पर चोट और आंखों में आंसुओं के सिवाय तुम्हें क्या मिलेगा?”

“जहां मैं मेहनत मजूरी कर अपना व अपनी बीमार बिटिया का पेट नहीं भर सकती वहां तुम्हें क्या दूं। बोलो बिटिया क्या दूं?” ये कहते-कहते वहीं द्वार पर ही पसरते हुए दहाड़े मार कर रोने लगी दुःख की मारी निम्मो…

वातावरण में अजीब सी दुःख भरी निस्तब्धता छा गई थी… तीनों में से कोई किसी से कुछ बोल पाने की स्थिति में नहीं था। केवल पीड़ा की भाषा इस वक्त मुखर थी। इतने में ही अंदर से एक दुर्बल, कृशकाय सी निम्मो की तेरह-चैदह बरस की मरगिल्ली सी पुत्री अचानक उनके मध्य आ टपकी। “क्या हुआ अम्मा? तू फिर से क्यों रोने लगी…” ये कहते-कहते वह भी मां के समीप बैठकर बिसूरने लगी।

निम्मो यकायक मानों नींद से जागी और बोली – लो बेटी भिक्षा मांग रही थीं न… लो मेरी लड़की को, मेरे कलेजे के टुकड़े को ले जाओ। ये कहते हुए निम्मो ने सचमुच में ही अपनी सलौनी का हाथ उनके हाथों में थमा दिया। सलौनी हतप्रभ सी कभी मां को तो कभी उन दोनों भिक्षुणियों को देख रही थी। निम्मो ने लगभग दुलारते हुए बिटिया से पूछ- “क्यों ? सलौनी, जाएगी न इनके साथ…”

सलौनी मानों किसी संकल्प को मन-ही-मन दोहराते हुए से उन अंजान युवतियों से बोली… क्यों? ले जाओगे मुझको अपने साथ?…

वे दोनों स्त्रियां स्तब्ध… अवाक… भला उन्हें कहां उम्मीद थी ऐसे प्रश्न की… आखिरकार निम्मो ने ही कहना आरंभ किया… “ले जाओ बिटिया ले जाओ। इसे अपने संग ले जाओ। तुम्हारे संग भिक्षा मांग कर धर्म कर्म में ध्यान लगाकर इसका भी उद्धार हो जाएगा वरना यहां तो इसका जीवन इसके पिता के हाथों ही कहीं नर्क न बन जाए। उस मुए का क्या भरोसा कब शराब के नशे में बेटी का सौदा कर आए इसको बेच खाए। सच बेटी उसका कोई ईमान धर्म नहीं है।”

विधाता ने इस काल में कैसी अनहोनी रची थी। चार युवतियां एक ही समय में एक ही निर्णय ले बैठी थीं। और सचमुच में ही सलौनी उन भिक्षुणियों का हाथ थाम कर द्वार से निकल गई। न मां चीख कर कलेजे के टुकड़े को लगाकर रोई न बेटी गले लग कर रोई। आह! कैसी अनहोनी विदाई थी सलौनी की। द्वार पर निम्मो पत्थर के बुत की तरह बैठी रही देर तक…

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