विश्वधर्म के दशलक्षण

-एलाचार्य प्रज्ञसागर मुनि-

श्रमण संस्कृति में भगवान महावीर ने कहा कि अपनी आत्मा पर ही क्षमा करो। क्षमा एक महान तत्त्वज्ञान है। दूसरे जीवों पर क्षमा करना सामान्य व्यावहारिक रूप है, पर सर्वोत्कृष्ट क्षमा तो अपनी आत्मा ही पर है। अपनी आत्मा की आराधना करने के लिए दशलक्षण पर्व भाद्रपद मास में मनाया जाता है। वर्ष में जितने पर्व हैं, उनमें दशलक्षण पर्वरात है। इसमें 10 दिन तक हम एक-एक धर्म की आराधना करते हैं। ये दश धर्म सभी आत्माओं में विद्यमान है। यह पर्व उन्हें प्रकट करने में सहायक होता है।

उत्तम क्षमाः क्षमा आत्मा का स्वाभाविक गुण है। उत्तम क्षमा तीनों लोकों का सार है। जब आत्मा में उत्तम क्षमा में कुछ कमी होती है तो यह जीव संसार में भटकता रहता है। जहां उत्तम क्षमा की अवस्था को यह आत्मा प्राप्त हुई, वह परमात्मा बन जाता है। क्षमा कोई सुनने-सुनाने की चीज नहीं है, यह तो पालन करने की चीज है। जाप-ऊं ह्रीं श्रीं उत्तम क्षमा धर्मांगाय नमः।

उत्तम मार्दव-हृदय की कोमलता और नम्रता ही संसार में श्रेष्ठ है। नम्रता स्थिर रहने वाली चीज है। जितना-जितना मनुष्य में ज्ञान बढ़ता जाता है, उतना ही उसमें मृदुता आती है। सबके साथ नम्रता का व्यवहार ही आदमी को ऊंचा उठा सकता है। जाप-ऊं ह्रीं श्रीं उत्तम मार्दव धर्मांगाय नमः।

उत्तम आर्जव-आर्जव यानी परिणामों की सरलता। जितना सरल हम बन जाएंगे, उतना ही ईश्वरत्व के समीप होते जाएंगे। जाप-ऊं ह्रीं श्रीं उत्तम आर्जव धर्मांगाय नमः।

उत्तम सत्य-सत्य पर सारे तप निर्भर करते हैं। बड़े-बड़े तपस्वी सत्य से विचलित हो गए, पर जिन्होंने सत्य का पालन किया, वे संसार से मुक्त हो गए। सत्य कैसा होना चाहिए?

सत्य वही उत्तम है, जिससे शांति की स्थापना हो और सुख प्राप्त हो। यदि सत्य बोलने से कलह और अशांति पैदा होती है तो ऐसे में मौन रहना ठीक है। जाप-ऊं ह्रीं श्रीं उत्तम सत्य धर्मांगाय नमः।

उत्तम शौच-शौच धर्म से तात्पर्य मन की पवित्रता से है। मन की पवित्रता तभी हो सकती है, जब मन में जो लोभ बैठा है, उसे हटा दें। संसार में पर पदार्थों के प्रति हमारी जो आसक्ति है, वही लोभ का कारण है। उत्तम शौच अखंड है, अभिन्न है। इससे मन शुद्ध होता है और यह लोभ का नाश करता है। जाप-ऊं ह्रीं श्रीं उत्तम शौच धर्मांगाय नमः।

उत्तम संयम-आचार्यों ने कहा है कि पांच व्रत, पंचसमिति का पालन, चार कषायों का त्याग और मन-वचन-काय का निग्रह ही संयम है। व्रत पांच हैं-अहिंसा, सत्य, अचैर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। क्रोध, मान, माया और लोभ-इन चार कषायों का त्याग संयम है। मन, वचन और काय, इन तीन योगों को काबू में रखना ही संयम है। इंद्रिय निरोध संयम है। जाप-ऊं ह्रीं श्रीं उत्तम संयम धर्मांगाय नमः।

उत्तम तप-इंद्रियों का दमन करना और इच्छाओं का निरोध करना तप है। जैसे स्वर्ण को तपाने से उसका शुद्ध रूप निकल आता है, उसी प्रकार यह आत्मा बारह प्रकार के तप द्वारा कर्म रूपी मैल का क्षय करके शुद्ध अवस्था को प्राप्त करती है। जाप-ऊं ह्रीं श्रीं उत्तम तप धर्मांगाय नमः।

उत्तम त्याग-जो व्यक्ति यथाशक्ति दान, त्याग करता है, उसी का जीवन सफल होता है। जब यह जीव अंतरंग और बहिरंग परिग्रह का त्याग कर आत्म ध्यान में लीन हो जाता है, वही उत्कृष्ट त्याग है। जाप-ऊं ह्रीं श्रीं उत्तम त्याग धर्मांगाय नमः।

उत्तम आकिंचन्य-एक आत्मा के अतिरिक्त और कोई पदार्थ मेरा नहीं। मैं एक परमात्म स्वरूप वाला हूं, ऐसा समझ कर आत्मा में लीन होना आकिंचन्य धर्म है और मुक्ति का मार्ग है। मनुष्य जब आकिंचन्य धर्म को समझ लेता है तो वह सब कुछ त्याग देता है। जाप-ऊं ह्रीं श्रीं उत्तम आकिंचन्य धर्मांगाय नमः।

उत्तम ब्रह्मचर्य-आत्मा में ही रमण करना उत्तम ब्रह्मचर्य है। व्यवहार में संयम से रहना ब्रह्मचर्य कहा जाता है। इसका पालन क्रोध, मान, माया और लोभ रूपी कषायों का त्याग करने से ही संभव है। जिसने अपने कषायों को हटा दिया है और शांत रस को पा लिया है, उसके ऊपर पदार्थों का कोई असर नहीं पड़ता।जाप-ऊं ह्रीं श्रीं उत्तम ब्रह्मचर्य धर्मांगाय नमः। 

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