उज्जैन के अश्विनी शोध संस्थान में मौजूद हैं 2600 साल पुराने सिक्के

उज्जैन । किसी भी देश की अर्थव्यवस्था में सिक्कों का बड़ा योगदान रहा है । इतिहास में रोजमर्रा के छोटे-मोटे लेन-देन से लेकर बड़े स्तर पर होने वाले अंतरदेशीय व्यापार में भी सिक्के ही चला करते थे। किसी भी राज्य अथवा देश के उत्थान और पतन की कहानी बयां करते हैं सिक्के। इन सिक्कों में हमारे गौरवशाली इतिहास की कई गाथाएं चित्रों के माध्यम से अंकित की गई हैं। ऐसे ही अनगिनत विभिन्न आकार-प्रकार और कालों के सिक्कों का संग्रह है उज्जैन से तकरीबन 35 किलो मीटर दूर महिदपुर के अश्विनी शोध संस्थान में। इस संस्थान के निदेशक आरसी ठाकुर द्वारा पिछले 30 सालों से निरन्तर अखिल भारतीय कालिदास समारोह में कालिदास अकादमी में सिक्कों की प्रदर्शनी लगाई जा रही है। सभी काल के समस्त प्रकार के सिक्के अश्विनी शोध संस्थान में मौजूद हैं, जिन्हें देखकर आश्चर्य भी होता है और

लगभग 40 साल पहले महिदपुर में बनाये गये अश्विनी शोध संस्थान में 2600 साल पुराने सिक्के भी संग्रहित किये गये हैं। इनमें कुछ सिक्के मूंग की दाल के दाने के बराबर छोटे हैं तो कुछ कटोरी जितने आकार के 20 ग्राम वजनी हैं। कालिदास समारोह में लगाई गई प्रदर्शनी के दौरान जब संस्था के निदेशक आरसी ठाकुर से बातचीत की तो उन्होंने सिक्कों के बारे में कई रोचक जानकारियां साझा की।

बचपन से था सिक्कों के प्रति लगाव
उन्होंने बताया कि उनके पिता जी घर में कोई भी शुभ अवसर के दौरान घर के एक ड्रम में पुराने सिक्के डालते रहते थे। इस तरह विभिन्न प्रकार के सिक्के संग्रहित करने के प्रति बचपन से ही उनका लगाव हो गया था। हमारे देश के इतिहास में कई राजाओं, सम्राटों और बादशाहों के राज का विवरण मिलता है। कई शासकों ने अपने शासनकाल में सिक्के जारी किये। हर नया राजा पिछले राजा के द्वारा जारी किये गये सिक्कों को नकार कर नये सिक्के प्रचलन में लाता था। इस वजह से सिक्कों के इतिहास में बहुत मिलावट हुई। उस समय के लेखक भी अक्सर तत्कालीन राजाओं से प्रभावित होकर लेखन का कार्य करते थे।

किसी भी राज्य के नवनिर्माण, उस दौर में हुए उल्लेखनीय कार्य, उस समय पूजे जाने वाले देवी-देवता, राज्य के उत्थान और पतन की कथा चित्रों के माध्यम से सिक्कों पर अंकित की जाती थी। सिक्कों पर राज्य के चिन्ह और तत्कालीन शासक के नाम भी अंकित किये जाते थे। इस तरह प्राचीन समय में सिक्के संचार का एक सशक्त माध्यम बने।

अकेले चले और फिर काफिला बनता गया

ठाकुर कहते हैं कि जब उन्होंने ऐतिहासिक सिक्कों के संग्रहण के उद्देश्य से अश्विनी शोध संस्थान का निर्माण किया तब सिक्कों के संग्रहण की राह इतनी आसान नहीं थी। उस समय वे कई मुद्रा शास्त्रियों के सम्पर्क में आये। डॉ. जगन्नाथ दुबे और डॉ. विष्णु श्रीधर वाकणकर को उन्होंने अपने संस्थान में सिक्कों का संग्रहण दिखाया। इसे देखकर डॉ. वाकणकर ने कहा था कि इन सिक्कों से अवन्तिका और देश का इतिहास बदल जायेगा। इससे उनको प्रेरणा मिली और उनके मन में सिक्कों के संग्रहण की भावना और बलवती होती चली गई। उस समय सिक्कों का शोध और संग्रहण उनके लिये एक जुनून बन गया था। ये सिक्के अधिकतर अवन्तिका और उसके आसपास के क्षेत्र से खुदाई के दौरान पाये गये।

उन्होंने नदी से सिक्के निकालने वालों से भी सम्पर्क किया। वे लोग इन सिक्कों को गला देते थे या कहीं और बेच देते थे। ठाकुर ने उनसे सिक्के खरीदना शुरू किये और उन पर शोध शुरू किया। सिक्कों का काल (समय) पता करने के लिये विभिन्न ग्रंथों, शोधपत्रों और कार्बन डेटिंग तकनीक का प्रयोग किया गया। इसके बाद कई छात्रों के द्वारा उनके संस्थान से सिक्कों पर पीएचडी कराई गई। अब तो देश-विदेश से सिक्कों पर अध्ययन करने वाले छात्र उनके संस्थान में आते हैं।

ठाकुर कहते हैं कि अब तो उन्हें सिक्कों का इतना अनुभव हो चुका है कि हथेली पर रखते ही सिक्के की पूरी जानकारी बता सकते हैं। वर्तमान में अश्विनी शोध संस्थान में तीन लाख से अधिक सिक्कों का संग्रहण है। इनमें चन्द्रगुप्त मौर्य, बिन्दुसार, नन्द शासक और सम्राट अशोक के समय के सिक्के भी हैं। सम्राट अशोक जब अवन्तिका के राज्यपाल बने, तो उन्होंने उस समय सिक्कों पर अशोक ब्राह्मी लिपि में अवन्तिका का नाम अंकित कराया था। उन सिक्कों में शिप्रा नदी, देवी पार्वती का हाथ और सत्ता का प्रतीक हाथी भी अंकित किया गया था ।

देश के विभिन्न शहरों में सिक्कों की प्रदर्शनी वे लगा चुके हैं। सिक्कों की पहचान करने और खुदाई में पुरातत्व विभाग का विशेष सहयोग रहता है। विभाग द्वारा ही सिक्कों की प्रदर्शनी भी समय-समय पर लगाई जाती है। ठाकुर बताते हैं कि ईसापूर्व प्रथम शताब्दी के सिक्कों में सम्राट विक्रमादित्य का विवरण भी मिलता है, जिससे यह साबित हो चुका है कि सम्राट विक्रमादित्य काल्पनिक नहीं बल्कि वास्तव में अवन्तिका के राजा थे। इस सम्बन्ध में एक शोधपत्र का प्रकाशन भी किया जा चुका है । विक्रमादित्य के बाद उनके नाम की उपाधि कई राजाओं ने अपने नाम के साथ लगाई। उस समय सिक्के बनाने में चांदी, तांबा, सीसा, पीतल और सोने का प्रयोग किया जाता था। पाणिनी और चाणक्य के समय लिखे गये ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है कि उस समय सिक्कों को बनाने के लिये विभिन्न धातुओं को गर्म किया जाता था, फिर उनकी एक चादर बनाई जाती थी तथा उस पर आहत करके विभिन्न आकार-प्रकार के सिक्के बनाये जाते थे। सिक्कों पर विभिन्न प्रकार के बिंब भी लगाये जाते थे।

हर सिक्के के पीछे है कहानी

हर सिक्के के निर्माण से कई रोचक और अनोखी कहानियां जुड़ी हैं। अंग्रेजों के शासन के दौरान उन्होंने लॉर्ड एडवर्ड के चित्र का सिक्का निकाला था। लॉर्ड एडवर्ड गंजा था। ये सिक्का जब प्रचलन में आया तो उस समय इंग्लैण्ड के अखबार ‘लंडन टाईम्स’ में लिखा गया था कि इस सिक्के को चलाना अंग्रेजों की राजकीय भूल है। भारत में भी स्थानीय लोगों ने यह सिक्का बाजार में चलाने से मना कर दिया था, क्योंकि उस समय यह मान्यता थी कि राजा को बिना सिर ढंके किसी के सामने नहीं आना चाहिये और सिक्कों में एडवर्ड के सिर पर कोई पगड़ी या टोपी नहीं थी। अंग्रेजों को अपनी भूल का अहसास हुआ और उन्होंने इसके बाद जॉर्ज पंचम के चित्र का सिक्का निकाला, जिसमें जॉर्ज को एक ताज पहनाया गया था और उनकी पोषाक को अलंकृत भी किया गया था। जो सिक्के अंग्रेजों ने वापस ले लिये थे, वे अत्यन्त दुर्लभ हैं, परन्तु हर्ष की बात यह है कि अश्विनी शोध संस्थान में ये दुर्लभ सिक्के भी संग्रहित किये गये हैं। वर्तमान में इस एक सिक्के की कीमत पांच लाख रुपये है। आज से तकरीबन 1200 साल पहले पूरे देश में सिक्कों पर हिन्दी भाषा में लिखा जाता था। यहां तक कि दक्षिण, पूर्वोत्तर और बंगाल क्षेत्र के राजा भी अपने सिक्कों पर हिन्दी में जानकारी अंकित करते थे। सातवाहन राजाओं ने अपने सिक्कों पर हिन्दी और तेलुगु दोनों भाषाओं का प्रयोग किया था।

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