सुरक्षा बलों की शहादत व भारतीय राजनीति

-तनवीर जाफरी-

जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में पिछले दिनों एक बार फिर भारतीय सुरक्षा बलों को भारी कीमत चुकानी पड़ी। केंद्रीय रिज़र्व सुरक्षा बल के 40 जवान गत् 14 फरवरी को सायंकाल पाकिस्तान द्वारा पोषित आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद द्वारा किए गए एक बड़े व नियोजित आत्मघाती हमले में शहीद हो गए। 18 सितंबर 2016 को इसी आतंकी संगठन जैश द्वारा उरी में किए गए आतंकी हमले के बाद पुलवामा के हमले को अब तक का सबसे बड़ा हमला माना जा रहा है। गौरतलब है कि उरी में सुरक्षा बलों को निशाना बनाकर किए गए हमले में 19 जवान शहीद हुए थे। हमारे देश में सुरक्षा बलों पर इस प्रकार के हमले होना गोया सुरक्षा बलों की नियती बन कर रह गये हैं। यदि हम आतंकियों व सुरक्षा बलों के मध्य होने वाली मुठभेड़ों अथवा हमलों में अब तक हुई सबसे अधिक शहादत की बात करें तो सीआरपीएफ के जवानों पर अब तक का सबसे बड़ा हमला 6 अप्रैल 2010 को दंतेवाड़ा ‘छत्तीसगढ़ में माओवादियों द्वारा घात लगाकर किया गया था। इस हमले में सीआरपीएफ के 76 जवान एक साथ शहीद हुए थे जबकि इसी मुठभेड़ में सुरक्षा बलों ने 8 माओवादी भी मार गिराए थे। इसी प्रकार 2010 में पश्चिमी बंगाल के सिलदा में नक्सल माओवादियों द्वारा अर्धसैनिक बलों के 24 जवानों को घात लगाकर शहीद कर दिया गया। 27 मार्च 2009 को महाराष्ट्र के पुश्तोला जि़ले में इन्हीं नक्सल माओवादियों द्वारा 15 सीआरपीएफ जवान शहीद कर दिए गए। नया गढ़ नक्सली हमले में 2008 में 14 पुलिस कर्मी शहीद हुए और इसी तरह 2007 में छत्तीसगढ़ के ही रानीबोडी गांव में नक्सली हमले में 55 पुलिसकर्मियों को शहीद कर दिया गया। उपरोक्त घटनाओं के अतिरक्त भी कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर तक तथा झारखंड व छत्तीसगढ़ में आए दिन हमारे सुरक्षा कर्मी शहीद होते देखे जा रहे हैं। निश्चित रूप से बार-बार होने वाले इस प्रकार के आतंकी हमले प्रत्येक भारतवासी के मस्तिष्क में यह प्रश्र ज़रूर उठाते हैं कि क्या भारतीय सुरक्षा कर्मियों के नसीब में केवल शहीद होना ही लिखा है? या फिर देश के विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग कारणों से अलग-अलग आतंकी संगठनों द्वारा किए जाने वाले हमलों को न रोक पाने के लिए राजनैतिक इच्छाशक्ति की कमी या राजनैतिक निर्णय लेने में सरकारों की असमर्थता जिम्मेदार है? पुलवामा हमले के बाद पूरा देश इस समय भारी गुस्से में है। प्रत्येक भारतीय नागरिक अपने शहीद जवानों के खून का बदला लिए जाने के लिए बेचैन है। इसी बीच भारतीय जनता पार्टी के एक सांसद नेपाल सिंह यह बयान देते हैं कि-‘सेना के जवान तो रोज़ मरेंगे। कोई ऐसा देश है जहां सेना का जवान न मरता हो? आगे इस सांसद ने यह भी कहा कि गांव में भी झगड़ा होता है तो कोई न कोई घायल होता है। हालांकि इस सांसद ने अपने इस शर्मनाक बयान के बाद माफी तो मांग ली परंतु निश्चित रूप से ऐसे बयान नेताओं की असंवेदनशील सोच का ही परिणाम हैं। अब आईए पुलवामा की घटना के संदर्भ में कश्मीर की सियासत तथा केंद्रीय राजनीति के रिश्तों पर भी नज़र डालते हैं। जम्मू-कश्मीर की आम जनता राज्य में अमन चाहती है। कश्मीरी लोग वहां की रोज़मर्रा की जि़ंदगी को सामान्य स्थिति की ओर ले जाना चाहते हैं। परंतु क्षेत्रीय राजनीति करने वाले कुछ नेता व राजनैतिक दल मात्र सत्ता में बने रहने के लिए अक्सर ऐसे बयान देते रहते हैं जो भले ही उनके लिए राजनैतिक रूप से फायदेमंद क्यों न साबित होते हों परंतु इससे कश्मीर के अलगाववादी विचारधारा रखने वाले लोगों में भारत सरकार के प्रति अविश्वास यहां तक कि नफरत की भावना पैदा होती है। उदाहरण के तौर पर जब भारत सरकार तमाम साक्ष्यों व दस्तावेज़ों के आधार पर कश्मीर में अलगाववाद को हवा देने या कश्मीर में आतंकवाद फैलाने में पाकिस्तान को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश करती है उस समय नेशनल कांफेंस के नेतागण को पाकिस्तान को जिम्मेदार ठहराना रास नहीं आता। इसी प्रकार पीडीपी की नेता व भारतीय जनता पार्टी की गठबंधन सरकार की मुख्यमंत्री रह चुकी महबूबा मुफ़्ती अनेक बार ऐसी भाषा बोल चुकी हैं जिनसे आतंकवादियों व अलगाववादियों के हौसले बुलंद होते हैं। परंतु इन दोनों ही दलों व इनके नेताओं के साथ राजनैतिक गठबंधन करने में न तो कांग्रेस को कोई एतराज़ होता है न ही भारतीय जनता पार्टी को। खासतौर पर पिछले दिनों जम्मू-कश्मीर में भाजपा व पीडीपी का गठबंधन तो राजनैतिक विश्लेषकों द्वारा अब तक का सबसे विचित्र गठबंधन माना गया। गोया ‘कथित राष्ट्रवाद’ व अलगाववाद का गठबंधन। हद तो यह है कि हुर्रियत कांफ्रेंस के नेतागण जोकि केवल अलगाववादी आंदोलनों को ही बढ़ावा देते हैं तथा उन्हें कश्मीर की अवाम पर सुरक्षा बलों द्वारा ढाए जाने वाले कथित ज़ुल्म तो दिखाई देते हैं परंतु अलगाववादियों व उनके इशारों पर बेगुनाहों की हत्याएं करने वाले आतंकवादियों के हमले नज़र नहीं आते, ऐसे हुर्रियत नेताओं के साथ भी दिल्ली की सरकारें अक्सर बातें करती रही हैं। इस प्रकार के वार्तालाप के नतीजे में अब तक कश्मीर में मुक मल शांति तो स्थापित नहीं हो पाई जबकि भारतीय सुरक्षा बलों की शहादत का सिलसिला ज़रूर पहले की ही तरह जारी  है। बल्कि पुलवामा आत्मघाती हमले के बाद तो सुरक्षा बलों के समक्ष ऐसे हमलों को रेाकने की एक बहुत बड़ी चुनौती खड़ी हो गई है। पुलवामा हमले के बाद केंद्र सरकार ने पाकिस्तान को इस हमले की साजि़श का सबक सिखाने की तैयारी कर ली है। इसी सिलसिले में अपना कदम आगे बढ़ाते हुए सबसे पहले भारत ने पाकिस्तान से एमएफएन (मोस्ट फेवर्ड नेशन) का दर्जा वापस लेने की घोषणा की है। दूसरी ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी सुरक्षा बलों को इस हमले की जवाबी कार्रवाई करने की पूरी छूट दे दी है। उधर सभी राजनैतिक दल भी सर्वदलीय बैठक कर सरकार के साथ पूरी एकजुटता से खड़े हुए है। परंतु सवाल यह है कि किसी आतंकी हमले के बाद सुरक्षा कर्मियों का शहीद होना और उसके बाद किसी आतंकी कार्रवई का बदला ले लेना या कोई बड़ा आतंक विरोधी आप्रेशन कर डालना या फिर सर्जिल स्ट्राईक जैसी कार्रवाई कर उसका राजनैतिक श्रेय लेना व सर्जिकल स्ट्राईक के पोस्टरों का चुनावी इस्तेमाल करना आदि, आतंकी समस्याओं का समाधान हो सकता है? संभव है ऐसी कार्रवाई दल विशेष के लोगों के लिए या फिर पेशेवर राजनीतिज्ञों के लिए संतोषजनक हो परंतु जिस परिवार का व्यक्ति शहादत की बेदी पर चढ़ता है वह परिवार अपने शहीद सदस्य की कमी कभी पूरा नहीं कर पाता। किसी भी शहीद के परिजनों की क्या स्थिति होती है या उनपर क्या गुज़रती है अथवा शहीदों के परिवार के भविष्य पर कितना नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, यह बात केवल किसी शहीद का परिवार ही महसूस कर सकता है। इस दर्द को न तो आतंकी हमलों की निंदा करने में महारत रखने वाले मंत्रीगण समझ सकते हैं न ही स्वयंभू राष्ट्रवादी लोग। राजनेताओं के शहीदों के प्रति समय-समय पर आने वाले गैरजिम्मेदाराना बयान जहां शहादत की संवेदनशीलता को कम करते हैं वहीं  कश्मीरी अलगाववाद समर्थित नेताओं के साथ उनका जम्मू-कश्मीर की सत्ता पर काबिज़ होने के मद्देनज़र ढुल-मुल रवैया इस प्रकार की घटनाओं की बार-बार हो रही पुनरावृति में सहायक साबित हो रहा है। निश्चित रूप से पुलवामा की घटना का मुंहतोड़ जवाब दिया जाना चाहिए। परंतु इसके साथ-साथ भारत सरकार को कश्मीर से लेकर देश के सभी उन क्षेत्रों में जहां-जहां सरकार की कमज़ोर व गलत नीतियों के चलते सुरक्षा बलों को शहादत के दिन देखने पड़ रहे हैं वहां-वहां अपनी नीतियों में कारगर बदलाव लाने की भी ज़रूरत है। भारतीय सुरक्षा बल देश की रक्षा व सुरक्षा का पर्याय होने चाहिए शहादत के नहीं।

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