सिंदूर का सच (कहानी)

-डॉ. ऋतु सारस्वत-

स्त्री के लिए शादी करना जितना जरुरी माना जाता है, उससे कहीं ज्यादा जरुरी उस शादी को हर कीमत पर बचाए रखना होता है। शादी किसी भी वजह से टूटे, दोष अकसर स्त्री के ही सिर मढ दिया जाता है। इससे बचने के लिए कई बार स्त्रियां सिंदूर के झूठ को आजीवन पहने रहती हैं। बुआ ने भी यही किया, मगर उसका नतीजा क्या हुआ?

इस बात को दो बरस बीतने को आए, पर आज भी उन्होंने बडी मजबूती से मेरा हाथ पकड रखा है कि कलम लिखते-लिखते रुक जाती है। हो सकता है कि कुछ लोगों के लिए यह मेरा वहम या अंधविश्वास हो, पर सच तो यह है कि जब-जब मैंने उनके बारे में लिखा, वह पन्ना गुम हो गया। इस बार मैंने उनसे प्रार्थना की कि वह मेरी कलम को अपने बंधन से मुक्त करें क्योंकि मैं नहीं चाहती कि कोई भी उनके जैसा जीवन जिए।

बुआ, क्या आप नहीं चाहतीं कि अन्य स्त्रियां आपकी कहानी से सबक ले सकें? कई बार मैंने खोए हुए पन्ने से हताश होकर शून्य में गुम हो गई बुआ से पूछा और आखिरकार उन्हें शायद मुझ पर तरस आ गया। उन्होंने कलाई की पकड ढीली कर दी। जग बुआ थीं वह। अजीब सा बंधन था उनके और मेरे बीच। बहुत करीब और कई बार बहुत दूर से निभाया जाता रहा यह रिश्ता। अब मेरी आंखें उन्हें व्याकुलता से खोजती हैं, पर कहीं नहीं हैं वह। अब कोई मुझे आवाज देकर नहीं पूछता, तुम ठीक हो? राघव की पढाई ठीक चल रही है? गुड्डी बताती है कि तुम लिखती-पढती हो, अच्छी बात है, खूब लिखो बेटा…। हालांकि रह-रह कर उनकी आवाज गूंजती है हवा में। वह तो चली गईं लेकिन मेरे लिए सवालों का ऐसा पिटारा छोड गईं कि मैं उसे खोलने से भी डरती हूं। मेरी ग्लानि ने बीते दो सालों में मुझे इतना कमजोर कर दिया है कि रिश्तों को लेकर लगातार कुछ सवाल मन में उठने लगे हैं। आखिर जीवन में क्या जरुरी है? रिश्ते, अपनापन या सबसे दूर अपना अलग संसार बसा लेना….? क्या सचमुच हर कोई इस भीड में अकेला है…? स्त्री का अपना घर कहां है? पीहर या ससुराल, या फिर दोनों ही नहीं…? ऐसे अनगिनत सवालों के भंवर में, मैं गोते लगा रही हूं पर अगर मैं इससे बाहर निकल नहीं पाई जो डूब जाऊंगी…। सोचते-सोचते मैं पसीने से तरबतर हो जाती हूं।

कुछ ही वर्ष पहले मैं इस घर में आई थी। पडोस इतना पास कि छत लगभग जुडी हुई थी। इतनी जुडी हुई कि सहजता से बातें हो सकें। अकसर मैं उन्हें छत पर कपडे सुखाते देखती। छोटा कद, सांवला रंग और शरीर इतना दुबला-पतला कि हवा के तेज झोंकों में शायद उन्हें मजबूती से अपने पांव धरती पर गडाने पडते होंगे। उनके ललाट पर सिंदूर की बडी सी बिंदिया सूरज को लजाती प्रतीत होती। उनका गहरा सिंदूर मुझे लंबे समय तक भरोसा दिलाता रहा कि वह जीवन साथी के साथ जीवन की इस सांध्य बेला में प्रसन्न हैं।

लोगों से कम कागजों से ज्यादा प्यार करती हो तुम…, मां से लेकर पति राज की ये शिकायत सुनकर हमेशा मुस्करा देती थी मैं, पर कभी न सोचा था कि अपनी इस आदत के कारण जीवन में कभी रिक्तता आ जाएगी। कई बार बुआ ने औपचारिकता से परे बात करने की कोशिश की मगर मैं कभी उस सीमा को लांघ नहीं पाई।

दीदी वह बुआ हैं न, पडोस वाली… बेचारी बडी बीमार चल रही हैं… अब कौन देखभाल करे, मैं पूरे दिन तो नहीं रह सकती उनके पास, चार जगह काम नहीं करूंगी तो मां का ऑपरेशन कैसे कराऊंगी? गुड्डी के शब्दों ने रोटी बेलते मेरे हाथों को रोक दिया। क्यों उनके पति और इतना बडा परिवार है न…!

परिवार काहे का…? बर्तन छोड वह सीधी खडी हो गई। आदमी तो कब का छोड भागा उन्हें। जब अपना आदमी सगा नहीं हुआ तो क्या ससुराल वाले सगे होंगे! तीस बरस तो मुझे हो गए बुआ को देखते-देखते, पीहर आ गईं पर भाग्य तो ससुराल छोड कर नहीं आ सकीं। स्कूल में पढाती थीं, भाई-भतीजों को अपने बच्चों सा पालतीं, मगर मजाल कि पिछले दस दिन से बिस्तर पर पडी बुआ को कोई पूछ भी ले। मेरी मां कहती हैं, काम के दाम हैं, चाम के नहीं…। बुआ के साथ तो यही हो रहा है। जब तक नौकरी में थीं, सब बुआ-बुआ करते अघाते न थे, अब रिटायर और बूढी हो गईं तो बोझ बन गईं सब पर।

गुड्डी ने आवेश में आकर बर्तनों की आवाज तेज कर दी थी। एक पल को बुआ का सिंदूर और छत की बातचीत से गुड्डी की बातों का तार जोडते मुझे समय लगा। पति ने छोड दिया तो फिर बुआ इतना गहरा सिंदूर किसकी खातिर लगाती हैं? दूसरे ही पल मुझे अपने सवाल पर ही शर्म महसूस होने लगी। खैर, इंसानियत के नाते शाम को बुआ की तबीयत पूछ आऊंगी, मैंने मन ही मन सोचा। मैं बाजार के काम निपटाने निकल गई। लौटी तो पडोस में पुलिस की गाडी और भीड दिखी। मन अनहोनी की आशंका से कांप उठा। मुझे देखते ही गुड्डी दौडी आई, दीदी जल्दी घर चलो…। उसने मेरा हाथ खींचा और दरवाजा बंद करके बोली, दीदी बुआ चली गईं, जहर खा लिया…, उसकी आंखें रोने से कम, गुस्से से ज्यादा लाल थीं।

मगर क्यों…, मेरी चीख सी निकल गई।

चल गुड्डी, वहां चलें…।

क्या करोगी? मरी को देखने जा रही हो, जिंदा थीं तो नहीं गईं। सुबह ही बताया था आपको, मिल लेतीं तो क्या पता, कुछ दर्द हलका हो जाता उनका, मगर दीदी आपको तो कहानियां लिखने से फुर्सत मिले, तब न! गुड्डी का कटाक्ष मुझे शर्मिंदा कर गया, तुम सच कह रही हो मगर… अपनी सफाई में मैं कुछ नहीं बोल पाई।

अच्छा चलो… गुड्डी के पीछे-पीछे मैं चल दी। घर में अजब सन्नाटा छाया था और बुआ का शरीर लाल चुनरी में लिपटा था।

सब पीछे हटें, इन्हें पोस्टमार्टम के लिए ले जाना है… रोबदार आवाज के साथ ही सब उठ गए। बुआ को उठाते हुए उनकी लाल चुनरी सरक कर गिर गई।

बदनाम कर गईं, जीवन भर सेवा की, सब किया, राम जाने क्यों ऐसा कर गईं…

चलो दीदी यहां से, इन लोगों की नौटंकी चालू हो गई…, गुड्डी ने दांत भींचते हुए मेरी कलाई पकड ली।

राज! देखो न किसी को बुआ के मरने का दुःख नहीं, बस इज्जत का ढिंढोरा…

तुम भी कमाल करती हो अरु… क्यों दुःख होगा, बोझ थीं उनके लिए, चली गईं…

बोझ…?

प्लीज अरु, ज्यादा इमोशनल मत बनो। हज्बेंड ने छोड दिया, मगर उसके नाम की माला जपती रहीं। टीचर थीं, अलग होकर दोबारा सेटल हो जातीं। राज की तल्ख आवाज ने मुझे खामोश कर दिया।

बुआ के जाने के दो दिन बाद से ही गुड्डी ने आना बंद कर दिया, दीदी, मेरी मां का ऑपरेशन है और अब इस मुहल्ले में आने का मन भी नहीं होता मेरा…।

दीदी, दरवाजा खोलो…। एक पल के लिए सांस रोकते हुए मैंने आवाज पहचानने की कोशिश की। गुड्डी ही थी। मैं सीढियां उतर कर दरवाजे की ओर भागी।

गुड्डी को देखते ही सबसे पहले ध्यान उसके माथे पर गया। बिंदी व सिंदूर का नामोनिशान भी नहीं था वहां।

दीदी, इतने ध्यान से क्या देख रही हो?

कुछ नहीं…., मुझे लगा कि कहीं मेरे मन की बात उसने सुन तो नहीं ली।

यही देख रही हो न कि मैंने सिंदूर क्यों नहीं लगाया? जब आदमी को छोड दिया तो काहे का सिंदूर? बुआ थोडे न हूं जो ढोंग करूं? घर में बैठा-बैठा हुकुम बजाता था, काम-धंधा कुछ करता नहीं। शराब पीकर आए दिन पीटना उसकी आदत थी। हद तब हो गई जब मां के इलाज के पैसे भी चुरा ले गया। मुझसे कहता है, मां को घर से निकाल दूं। कैसे छोड दूं भला। जिसने जन्म दिया, उसे ही इस अवस्था में छोड दूं? माफ करना दीदी आप जैसी पढी-लिखी नहीं हूं, मगर ढोंग नहीं कर सकती। मैं दुनिया के हिसाब से नहीं चल सकती। मैं रोज पिटती थी पति के हाथों तो कोई बचाने नहीं आता था। आज उसे छोड दिया तो लगे मेरे चरित्र पर उंगलियां उठाने। दुनिया तो कैसे भी नहीं जीने देती। बुआ को ही देख लो न, जिंदगी भर पति के नाम का सिंदूर लगाती रही। मुझसे कहती थीं, गुड्डी सिंदूर लगा हो तो बाहर कोई टेढी निगाह नहीं रखता। अपने आपसे कितना बडा झूठ गढ लेती हैं औरतें? क्या अकेला होना गुनाह है। बुलंदी तो अपने भीतर होती है, फिर क्या मजाल कि मज्री के खिलाफ कोई हाथ भी लगा ले। दीदी, बुआ ने भी सच को स्वीकार कर लिया होता तो इतनी निराश होकर दुनिया से न जातीं। कई बार समझाया उन्हें कि पास की बस्ती के बच्चों को पढा लो। अपने घेरे से बाहर निकलो, लोगों से मिलो, उनके सुख-दुख बांटो….। गुड्डी की बातों से मेरी ग्लानि भी पिघलने लगी थी।

गुड्डी कहां से सीखा तुमने ये सब…?

ओ दीदी, ये ज्ञान किताबों, कंप्यूटर और वो क्या कहते हैं उसे, हां-फेसबुक से नहीं मिलता। बाहर निकलो और जिंदगी को जानो…। गुड्डी की हंसी ने पूरे घर को गुंजायमान कर दिया था।

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