फिर आया मौसम दलबदल का

-योगेश कुमार सोनी-

राजनीति बड़ी अजीब होती है। यहां सुविधा के हिसाब से सिद्धांत गढ़े जाते हैं। चुनावी महादंगल की तारीखें तय होने के साथ बागी व दलबदलू नेता भी सुविधानुसार अपनी दुकान सजाने में जुट गए हैं। आम से लेकर खास, इस बार का लोकसभा चुनाव किसी विश्व कप कम से कम नहीं आंक रहे हैं। इसलिए हर छोटा-बड़ा नेता अपने वर्चस्व को आजमाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाह रहा। इसका प्रमाण दलबदलुओं व बागियों के रुप में देखने को मिल रहा है। पिछले कुछ दिनों से देखा जा रहा है कि बागी नेता अपनी पार्टी पर कुछ भी आरोप लगा कर दूसरी पार्टी में जा रहे हैं। हालांकि ऐसा पहली बार नहीं हो रहा। लेकिन इस बार जिस स्तर व तादाद में हो रहा है वह रोचक स्थिति पैदा कर रहा है। पिछले दो-तीन वर्षों में लगभग हर कोई सोशल मीडिया से जुड़ा है और हर छोटी-बड़ी घटना से हर आयुवर्ग सभी जानकारियों व राजनीतिक गतिविधियों को समझने में रुचि लेने लगा है। लेकिन मन में प्रश्न यही है कि अब ऐसे दल बदलुओं को क्या सिर्फ पार्टियों के झंडे का सहारा है या पार्टियों को अपने वजूद की दरकार है। कई सीटों पर यह देखा जाता है कि जनता अपने पुराने व विश्वसनीय चेहरे को ही वोट देती है, चाहे वह किसी भी पार्टी का हो। हर पार्टी उस कैंटिडेट को अपनी ओर लाने का अथक प्रयास करती है। दूसरी ओर कुछ सीटें ऐसी होती हैं जहां पार्टी का वजूद होता है। वहां से कोई भी खड़ा हो जाए तो जीत पक्की। इसके सिवाय भी कुछ नेता ऐसे बचते हैं जो सिर्फ अवसरवादी होते हैं। जो सिर्फ पार्टी की स्थिति व लहर के हिसाब से चलते हैं। हालांकि अब जनता ऐसे लोगों का खेल समझ चुकी है। फिर भी गाहे-बगाहे उनके झांसे में आ ही जाती है। बीते दिनों दिनों नवजोत सिंह सिध्दू ऐसी नकारात्मकता के शिकार बने थे। अब जनता व उनके प्रशसंकों ने उनको गंभीर लेना बंद कर दिया क्योंकि जो तंज वह बीजेपी में रहते कांग्रेस पर कसते थे, अब वही बीजेपी के ऊपर मारते हैं। सोशल मीडिया में उनकी ऐसी तमाम विडियो वायरल हुई थी। एक सर्वे के अनुसार ऐसे लोगों के प्रति जनता के मन में वह सम्मान नहीं रह जाता जो पहले होता था। साथ ही जनता ऐसे नेताओं को सबक सिखाने चक्कर में भी रहती है। पहले यह घटना छोटे चेहरे तक ही सीमित थी। लेकिन अब बड़े चेहरे भी इस तरह का एक्सपेरिमेंट कर रहे हैं। ग्राउंड जीरो पर उतरकर पता चला कि यह बात जनता भलीभांति समझ चुकी है कि ऐसे लोगों के लिए राजनीति महज एक व्यापार है। कुछ नेता अपने वजूद को किसी भी रुप में कायम रखना चाहते हैं। इस बार दलबदल की प्रक्रिया देश के लगभग हर राज्य में देखने मिली है। बहरहाल, इस तरह के नेताओं की गंभीरता को समझने के लिए जनता भारी मंथन में दिख रही है। हर किसी का अच्छा, बुरा व सामान्य इतिहास होता है। कुछ बागियों पर पार्टी आरोप लगा देती है तो कुछ पार्टी पर आरोप लगा देते हैं। लेकिन दोनों ही स्थिति में सच की प्रमाणिकता कभी नहीं दिखती जिस पर जनता पर भ्रमकता का साया रहने लगा। जनप्रतिनिधि का हमेशा से एक अर्थ होता है। लेकिन ऐसे घटनाओं से अब भरोसा अर्थहीन होता जा रहा है। हम हर किसी को एक ही श्रेणी में नहीं आंक रहे हैं। लेकिन लंबी फेहरिस्त सोचने पर मजबूर कर रही है। इसी तर्ज पर कुछ पार्टियों का गठबंधन भी जनता को पचाना भारी पड़ रहा है। यदि हम उत्तर प्रदेश की बात करें तो सपा-बसपा-रालोद के गठबंधन से जनता व तीनों पार्टियों के कार्यकर्ता बेहद परेशान हैं कि वोट चेहरे को दें या पार्टी को, क्योंकि पिछले 25 वर्षों से इन पार्टियों के वोटर व कार्यकर्ता आपस में इस कदर नफरत करने लगे थे, मानों उन्होंने एक-दूसरे का कुछ बहुत बड़ा छीन लिया हो। लेकिन इस गठबंधन के बाद सब समझ चुके कि जब पार्टियों के शीर्ष नेता परिस्थिति देखकर आपस में एक हो सकते हैं, तो हम क्यों नहीं। ऐसा ही कुछ राजधानी दिल्ली में भी देखने को मिल रहा है। जो केजरीवाल कांग्रेस के वजूद को खत्म करके जन्मे थे। उन्होंने बच्चों की कसम खाई थी कि वे किसी पार्टी से गठबंधन नहीं करेंगे। आज वही केजरीवाल कांग्रेस से गठबंधन की भीख मांग रहे हैं। केजरीवाल के इस बयान से जनता के मन में उनके प्रति खासी नाराजगी देखने को मिल रही है। लोगों ने उनको गंभीरता से लेना बंद कर दिया है। इलाहाबाद से भाजपा के सांसद श्यामाचरण गुप्ता इस बार समाजवादी पार्टी के टिकट पर बांदा से भाग्य आजमा रहे हैं। इसके अलावा भी कई दलों के ऐसे तमाम उदाहरण हैं। अक्सर देखा जाता है कि राजनीति में तर्ज व तर्क की कोई कीमत नहीं होती। कब, कौन, किससे, क्यों बागी हो जाए पता नहीं चलता। सुविधा के हिसाब से सिद्धांत गढ़े जा रहे हैं। कहें व समझें भी तो कैसे और क्यों? क्योंकि आरोप का प्रमाण ही नहीं होता। ऐसा भी देखा जाता है कि पार्टी के वो चेहरे पार्टी पर वह आरोप लगाकर दल छोड़ते हैं जिसकी उम्मीद नहीं होती। बहरहाल, देखना यह है कि बागियों व दलबदलुओं को जनता किस रुप में स्वीकारती है, क्योंकि पूर्व में हुई कुछ घटनाओं से अब ऐसे लोगों की गंभीरता कम होती जा रही है। कुछ नेता तो केवल अवसरवाद के आधार पर राजनीति कर रहे हैं लेकिन ऐसे चेहरों का भविष्य इस बार तय हो जाएगा कि वो आगे चल पाएंगे या नहीं? राजनीति में अवसरवाद बुरा नहीं माना जाता लेकिन हर रंग, हर किसी पर नहीं खिलता। अर्थात हर किसी को हर पार्टी का झंडा नहीं जंचता। खैर, चुनाव के नतीजे ही बताएंगे कि बागियों या दलबदलुओं से पार्टियों को क्या फायदा या नुकसान होगा।

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