समाज का दर्पण है रंगमंच

रमेश ठाकुर

नाटक, रंगमंच व रंगकर्मी शब्द सुनते ही मन प्रफुल्लित और आनंदित हो जाता है। इंसान भले ही कितना भी व्यस्त क्यों न हो, ‘रंगरस धारा’ में बहने से खुद को नहीं रोक पाता। दरअसल रंगमंच के नाटक सभी के जीवन से सीधा संबंध रखते हैं। बूढ़े हों या बच्चे, हर वर्ग के लिए रंगमंच अनगिनत विधाओं का बहता संगम है। एक जमाना था जब मनोरंजन का सबसे सुगम एकमात्र साधन सिर्फ रंगमंच हुआ करता था। लेकिन सिनेमा के आने से इनकी राहों में कांटे बिछ गए। सिनेमा से रंगमंच को नुकसान तो जरूर हुआ, पर रंगमंच का संसार आज भी शाश्वत है। लोगों में आज भी रंगमंच को लेकर ऐसी लगन है जो कभी समाप्त नहीं हो सकती। रंगमंचीय कलाकारों के आगे परेशानियों का पहाड़ है। बावजूद इसके वे अपने हुनर को जिंदा रखे हुए हैं। बेशक, रंगमंच और सिनेमा दोनों का स्वाद एक-दूसरे से अलग है। सिनेमा में जहां किरदार एक रील में होते हैं, वहीं नाटक में सजीव व्यक्ति संवाद करता है। नाटक की प्रस्तुति सबको अपनेपन का अहसास कराती है। इसलिए रंगमंच इंसानी परेशानी को दूर करने का सशक्त जरिया है। रंगमंच की ताकत से पूरी दुनिया परिचित है। इसलिए इनके योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। समाज सुधार और बदलते सामाजिक परिवेश के लिए थियेटर की भूमिका को कमतर नहीं आंका जा सकता है। हिंदुस्तान ही नहीं, बल्कि पूरे जगत को रंगमंच के कलाकारों ने अपनी कलाकारी से बदला है। स्टेज पर कलाकार जो नाटक और अपना हुनर पेश करते हैं। उसमें आम जीवन की असल कहानी छिपी होती है। दर्शक उसी नाटक को अपने जीवन में भी उतारने की कोशिश करते हैं। थियेटर की ताकत से पूरा संसार वाकिफ है। 27 मार्च को पूरे विश्व में रंगमंच दिवस मनाया जाता है। रंगमंच समाज का दर्पण होता है जिसे कलाकार अपनी प्रस्तुति के जरिए दर्शकों के समक्ष पेश करते हैं। कई बार उनके नाटक देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने उनकी ही कहानी स्टेज पर कुरेद दी हो। रंगमंच विधा ‘खास’ से लेकर ‘आम’ सभी के जीवन से जुड़ी है। जब इंसान परेशान होता है तो रंगमंच को ही अपना साथी बनाता है। उससे जुड़कर सुकून का एहसास पाता है। भारत में रंगमंच का बुहत ही सुनहरा काल बीता है। देश बदला, तो रंगमंच ने भी अपनी कलाकारी में बदलाव किया। रंगमंच से जुड़े लोगों के भीतर एक टीस हमेशा रही है। उनको लगता है आजादी से अब तक की सभी हुकूमतों ने उनके साथ सौतेला व्यवहार किया। दरअसल सुविधाओं का अभाव रंगमंच का एक स्याह पहलू रहा। सरकार की तरफ से सुविधाओं के नाम पर अकाल है। एक कलाकार पूरे जीवन कलाकारी कर दर्शकों का मनोरंजन करता है, लेकिन जब उसका शरीर बूढ़ा हो जाता है तो समाज उसे नकार देता है। फिर उनकी तरफ देखने वाला कोई नहीं होता। उस वक्त उन्हें सबसे ज्यादा सरकार की बेरूखी अखरती है। उस अवस्था में बुजुर्ग कलाकार के लिए सरकार की ओर से उपयुक्त सुख-सुविधाएं सुलभ होनी चाहिए। पेंशन आदि की व्यवस्था होनी चाहिए। मौजूदा वक्त में थियेटर से संबंध रखने वाले अधिकांश कलाकार परेशानियों से जूझ रहे हैं। असुविधाओं और फाइनेंसियल रूप से वह कलाकार ज्यादा आहत हैं जो नुक्कड़ नाटक, स्टेज व थियेटर से ताल्लुक रखते हैं। दर्शक भी रंगमंच कलाकारों की प्रस्तुतियां देखने के बाद सिर्फ ताली बजाकर चलते बनते हैं। एक जमाना था जब दर्शक उनको उपहार स्वरूप बहुत कुछ दिया करते थे। उनका ख्याल रखते थे। लेकिन अब पहले वाली बातें बेमानी हो गई हैं। देश के रंगमंच का इतिहास बहुत ही स्वर्णिम रहा है। रंगमंच कलाकारों ने बेहतरीन प्रस्तुतियों न सिर्फ देश के लोगों को प्रभावित किया, बल्कि विदेशों में भी भारत का नाम रौशन किया। विदेशों में आज दूसरे देशों के मुकाबले भारत के कलाकारों को ज्यादा सराहा जाता है। रंगमंच को जिंदा रखने के लिए सरकारी सुविधाओं को प्रदान करने की दरकार अब आन पड़ी है। प्रशासन को रंगमंचीय कलाकारों को उनकी जरूरतों के हिसाब से सुविधाएं मुहैया कराने की आवश्यकता है। मसल उनके लिए ऑडोटोरियम, प्रैक्टिस के लिए पर्याप्त स्थान के साथ ही उनकी सुरक्षा के लिए भी उचित व्यवस्था होनी चाहिए। हाल ही के दिनों में स्टेज कलाकारों के साथ प्रोग्राम के दौरान पब्लिक द्वारा अभ्रदता और छेड़छाड़ जैसी घटनाएं घटी। कुछ घटनाएं तो काफी भयानक तौर पर घटीं। मध्यप्रदेश में एक महिला स्टेजकर्मी के साथ बलात्कार होना, पंजाब में एक डांसर को गोली मार देने जैसी अप्रिय घटनाएं भी लगातार घट रही हैं। इन सभी कृत्यों को रोकने की जिम्मेदारी सिर्फ प्रशासन की ही बनती है। दुख तब होता जब प्रशासनिक अमला भी मूकदर्शक बन जाता है। वक्त का तकाजा है कि रंगकर्मियों को सहेज कर रखना हम सब की जिम्मेदारी है। अगर उनके प्रति उदासीनता यूं ही बनी रही तो दिनोंदिन रंगमंच संस्कृति के लिए स्थिति दयनीय होती जाएगी।

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