व्यंग: शोक सभा उर्फ टपाजंलि समारोह

-अशोक गौतम-

साहित्यिक संसार में राजनीतिक संसार से भी अधिक दोगलापन होता है। कोई साहित्यकार अपने को भले ही हद से आगे का घाघ समझता फिरे पर वह भी दूसरे अपने ख़ास से सुबहो-शाम गले लगने वाले क़लमी दोस्त से गच्चा खा जाए तो कोई आश्चर्य नहीं। मैं भी थोड़ा बहुत कभी-कभार स्याही के दवात में ज़बरन घुस मुँह काला कर लेता हूँ। इसीके चलते कुछेकों का ख़ास दोस्त होने के बाद भी मैं उनका क़लमी दुश्मन होता जा रहा हूँ। कल तक जिन्होंने मुझे स्याही की दवात में मेरी नाक पकड़ पहली बार डुबकी लगाना सिखाया था और देखो, आज मैं भी उनका छुपा क़लमी दुश्मन होता जा रहा हूँ। यह बात दीगर है कि हम दोनों जब-जब मिलते हैं, मैं पूरी अश्रद्धा से उनके पाँव छूता हूँ और वे मुझे उतनी ही अश्रद्धा से मुस्कुराते हुए आर्शीवाद देते हैं। मैं उनसे और वे मुझसे जब-जब मिलते हैं, इतनी ज़ोर से एक दूसरे को जकड़ते हैं कि एक दूसरे की रीढ़ की हड्डी तोड़ने की मुस्कुराते हुए पूरी कोशिश करते हैं। फिर भी पता नहीं क्यों रीढ़ की हड्डी न मेरी टूटती है न उनकी। हमारी साहित्यिक गली से पिछले हफ़्ते स्याही की दवात में दिन-रात जीवन यापन करने वाले स्याही की दवात में से अचानक निकल आगे की दुनिया को कूच कर गए तो कइयों के संपादकों के कोप से सिकुड़ते सीने भी छप्पन हुए। कम्बख़्त चौबीसों घंटे स्याही के दवात में डेरा जमाए रहते थे। वहीं खाना, वहीं पाखाना। परंपरा निर्वाह हेतु और यह जायज़ा लेने के लिए कि अगली शोक सभा के लिए कौन बलि का बकरा होने जा रहा है अखिल भारतीय चुराइटर संघ की शहरी इकाई ने डीसी ऑफ़िस के शोक सभाओं के लिए विशेष तौर पर बने कमरे में शोक सभा के आयोजन की घोषणा कि तो कई उस शोक सभा में जाने को इतने बेताब कि मानों गए क़लमी की शोक सभा में नहीं अपितु उनकी बारात में जा रहे हों। एक उच्चकोटि के क़लमकार की सबसे बड़ी ख़ासियत यही होती है कि वह जाने वाले साहित्यकार से सपने में मिला हो या न, पर उसकी शोक सभा में सलीक़े से सज-धज उसे श्रद्धांजलि देने वक़्त से पहले पहुँच जाता है ताकि दूसरों को पता चल सके कि वह उसके लिए कितना अज़ीज़ था। अखिल भारतीय चुराइटर संघ की शहरी इकाई के प्रधान ने वैसे तो अपने दल के सभी चिरकुट क़लमजीवियों को मोबाइल पर चार-चार बार सूचित कर दिया था, पर तय समय पर पचास में से दस ही लोग गए साहित्यकार को श्रद्धांजलि देने पहुँचे थे, और वे भी दूसरे ख़ेमे के। उन्हें बार-बार यही चिंता खाए जा रही थी कि पहले ही तैयार करके भेजे जा चुके प्रेस नोट में जिन-जिन अपने दल के साहित्यकारों के नाम भेजे गए हैं, जो वे शोक सभा में न आए तो विरोधी दल के साहित्यकार कल को उनकी धोती और बोटी दोनों तार-तार करके रख देंगे। वैसे तो साहित्यकार बिन दाँतों के प्राणी होते हैं पर जो काटने पर आ जाएँ तो… ऐसे ऐसे दाँत कहीं से उठाकर लाते हैं कि पूछो ही मत। शुक्र ख़ुदा का! शहरी इकाई के प्रधान के ख़ेमे के वे भी आख़िर आए ही गए जिनके नाम वे प्रेस नोट में भेज चुके थे। यह देख उनकी जान में जान आई। वरना उन्हें तो लग रहा था कि इस शोक सभा के बाद अगली शोक सभा उनकी ही होगी। राजनीति पर, एक दूसरे पर, अपने आसपास पर बेतुकी बहस करने के बाद जब सब थक गए तो अचानक किसी का ध्यान बासी फूलों के बीच रखी दिवंगत साहित्यकार की उदास तस्वीर की ओर गया जो एक घंटे से बराबर इंतज़ार कर रही थी कि कम से कम मरने के बाद ही सही कोई उस पर फूल तो चढ़ाए। अब तो फूलों के बीच रखे होने पर भी उसे फूलों की ख़ुशबू में भी बदबू आने लगी थी,और फोटो में क़ैद तस्वीर में साहित्यकार ने अपनी साँस को बीच-बीच में रोकना शुरू कर दिया था। …. शोक सभा शुरू हुई। क़ायदे से मंच और माइक पर हक़ इकाई के प्रधान का बनता था सो उन्होंने मंच और माइक दोनों साधिकार सँभाले। कुछ देर तक बैठे हुओं पर सरसरी नज़र दौड़ाने के बाद जब वे गए हुए कि अनुपस्थिति को लेकर पूरी तरह आश्वस्त हो गए तो उन्होंने चैन की परम लंबी साँस लेने के बाद कहा, “मित्रो! बड़े सुख सॉरी दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि हमारे बीच में से एक चौबीसों घंटे स्याही की दवात में डूबे रहने वाले फ़िलहाल कुछ समय के लिए उठ गए। हम आज उन्हीं की आत्मा को श्रद्धांजलि देने यहां इकट्ठा हुए हैं। इससे पहले कि उनके बारे में बुरा-भला कहा जाए मैं आदर के साथ निवेदन करूँगा अपनी इकाई के सबसे वृद्ध साहित्यकार श्री अलबेला जी से कि वे आज की इस शोक सभा का अध्यक्ष होना स्वीकार करें। अलबेला जी प्लीज़! वैसे ज़िंदगी का कोई भरोसा तो नहीं, पर क़ायदे पता नहीं उन्हें किसी शोक सभा की अध्यक्षता करने का मौक़ा फिर मिले या न मिले। प्रचलित है, जो अध्यक्ष पद प्रेमी जीव किसी कार्यक्रम की अध्यक्षता किए बिना गोलोकवासी हो जाता है कहते हैं वह वहां भी जब तक किसी कार्यक्रम की अध्यक्षता नहीं कर लेता, उसकी आत्मा को शांति नहीं मिलती। वैसे मैं भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि वे इन्हें दीर्घायु प्रदान करें।” कुढ़ते हुए, मन ही मन इकाई प्रधान को जी भर गालियाँ देते अलबेला जी सबके बीच में से कमर सीधी करते उठे और हँसते हुए अध्यक्ष की कुर्सी पर आधे-पौने चौड़े होकर पसर गए। अभी वे कुर्सी पर ठीक ढंग से पसरे भी नहीं थे कि …, “इनके लिए ज़ोरदार तालियाँ! अब मैं निवेदन करूँगा कि अध्यक्ष महोदय उठें और आज के कार्यक्रम की शुरूआत करते हुए दिवंगत के आगे दीप प्रज्ज्वलित कर इन्हें फूलमाला अर्पित करें।” इससे पहले कि अध्यक्ष कुर्सी से उठकर टूटे हुए टेबल पर रखी दिवंगत की फोटो पर फूलमाला अर्पित करने को आगे बढ़ते, दिवंगत ने फोटो में से दो घंटे से पुष्पांजलि का इंतज़ार करते-करते अकड़ रही अपनी गरदन को ज़रा सीधा कर अपने आप से कहा, “साला! उम्र भर तो मुझे काटता रहा। आज पहनानी ही पड़ी न मुझे माला? वह भी फूलों की। सारी उम्र तो जूतों की माला लिए मेरे पीछे नंगे पाँव दौड़ता रहा कम्बख़्त कहीं का!” दिवंगत को फूल माला डालने, फूल चढ़ाने, उस पर फूल फेंकने का दौर ख़त्म हुआ तो दिवंगत के बारे में सड़ास-भड़ास निकाली जाने लगी। जब भड़ास-सड़ास निकल कर लगभग ख़त्म हो गई, दिवंगत के बारे में जो कुछ जानता भी नहीं था वह भी उसके बारे में कह कर थक गया तो अखिल भारतीय चुराइटर संघ की शहरी इकाई के प्रधान ने श्रद्धांजलि समारोह को क्लोज़ करते कहा, “मित्रो! कुछ देर पहले तक मुझे यक़ीन नहीं हो रहा था कि हमारी यह शोक सभा श्रद्धांजलि समारोह में बदल जाएगी। इसके लिए मैं आप सभी को साधुवाद देना चाहता हूँ। मुझे आशा ही नहीं पूरा विश्वास है कि आगे भी शोक सभा को आयोजित करने में आप सब दलगत साहित्य को भुला मुझे इस पुनीत कार्य को पूरा करने का सुअवसर प्रदान करते रहेंगे। असल में यह शोक सभा दिवंगत साहित्यकार की शोक सभा कम हमारी परीक्षा अधिक थी। हम इस कसौटी पर खरे उतरे। ज़िंदा रहते तो हमें एक दूसरे से बराबर शिकायत रहती ही है पर अब जाने के बाद हमें आपस में कोई शिकायत शायद ही हो। मुझे उम्मीद है कि अगली शोक सभा में भी आप सब बंधु इसी तरह नहीं, अपितु इससे भी अधिक बढ़-चढ़ अपनी उपस्थिति दर्ज करवा दिवंगत हुए साहित्यकार की आत्मा को शांति देकर मुझे कामयाब बनाते रहेंगे। चाय समोसे का इंतजाम बाहर किया गया है। आपसे निवेदन है कि आप बिन खाए न जाएं। …तो अगली शोक सभा तक नमस्कार! जय अखिल भारतीय चुराइटर संघ!! जय वह दिवंगत जिन्होंने हमें आज यह कार्यक्रम करने का सुअवसर प्रदान किया। इस बहाने हम शहर के सारे लेखक कम से कहने को ही सही अपने अपने मतभेद भुला इकट्ठे तो हुए। ….तो अब मैं अधिक न कहते अपनी वाणी को लगाम दते हुए आज की इस शोक सभा की कामयाबी पर सबको मुबारकबाद देता हूँ। दिवंगत अब ख़ुशी-ख़ुशी यमलोक जाए, उससे अब बस यही हाथ-कान पकड़ प्रार्थना!”

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