राहुल उद्योगपति तो हैं नहीं फिर उनकी संपत्ति में इतनी वृद्धि कैसे हो गयी?

-ललित गर्ग-

अधिकांश जनप्रतिनिधि संसद का प्रतिनिधित्व करते हुए किसी व्यापार, उद्योग एवं लाभ कमाने वाली ईकाई से सीधे नहीं जुड़े होते हैं, फिर उनकी धन-सम्पत्ति इतनी तेजी से कैसे बढ़ जाती है? यह विरोधाभास नहीं, बल्कि हमारे लोकतंत्र का दुर्भाग्य है। वर्ष 2019 के आम चुनाव में वैसे देखा जाये तो न सत्तापक्ष और न विपक्ष के पास कोई बुनियादी मुद्दा हो। यह मुद्दााविहीन चुनाव है जो लोकतंत्र के लिये एक चिन्ताजनक स्थिति है। बावजूद इसके एक अहम मुद्दा होना चाहिए कि हमारे जनप्रतिनिधि इतने जल्दी अमीर कैसे हो जाते हैं? अधिकांश जनप्रतिनिधि संसद का प्रतिनिधित्व करते हुए किसी व्यापार, उद्योग एवं लाभ कमाने वाली ईकाई से सीधे नहीं जुड़े होते हैं, फिर उनकी धन-सम्पत्ति इतनी तेजी से कैसे बढ़ जाती है? यह विरोधाभास नहीं, बल्कि हमारे लोकतंत्र का दुर्भाग्य है। इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि यहां का वोट देने वाला आम मतदाता दिन-प्रतिदिन गरीब होता जा रहा है, जबकि गरीब वोटरों के वोटों से जीतने वाला जनप्रतिनिधि तेजी से अमीर बनता जा रहा है। लोकतंत्र में संसद और विधानसभा देश की जनता का आईना होती हैं। अब राजनीति सेवा नहीं पैसा कमाने का जरिया बन गई है। आज लाभ के इस धन्धे में नेता करोड़पति बन रहे हैं। राजनीति में यह समृद्धि यूं ही नहीं आई है, इसके पीछे किसी-न-किसी का शोषण और कहीं-न-कहीं बेईमानी जरूर होती है। यदि गंभीरता से आकलन किया जाये तो बस यही घोटालों एवं भ्रष्टाचार की जड़ है, जो राष्ट्रीय लज्जा का ऊंचा कुतुबमीनार है। जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आते जा रहे हैं, राजनीतिक दल एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं। कितना अच्छा होता कि आरोप-प्रत्यारोप या एक-दूसरे को नीचा दिखाने की जगह राष्ट्र को मजबूत बनाने की बात होती, आमजनता के दुःख एवं परेशानियों को दूर करने का कोई ठोस एजेंडा प्रस्तुत होता। सच जब अच्छे काम के साथ बाहर आता है तब गूंगा होता है और बुरे काम के साथ बाहर आता है तब वह चीखता है। ऐसा ही लगा जब भाजपा ने राहुल गांधी की संपत्ति को लेकर उन पर जो आरोप लगाए। इस आरोप में उनकी सत्यता पर कुछ कहना कठिन है, लेकिन यह बात हैरान तो करती ही है कि 2004 में 55 लाख की जमीन-जायदाद के मालिक 2014 में नौ करोड़ की संपदा के स्वामी कैसे हो गए? यह सवाल इसलिए और चकित करता है, क्योंकि सब जानते हैं कि कांग्रेस अध्यक्ष न तो कोई कारोबारी हैं और न ही डॉक्टर या वकील। पता नहीं भाजपा की ओर से जो सवाल उछाला गया उसका कोई संतोषजनक जवाब मिलेगा या नहीं, लेकिन ऐसे जवाब केवल राहुल गांधी से ही अपेक्षित नहीं हैं। आज भाजपा एवं राजनीतिक दलों में ऐसे अनेक जनप्रतिनिधि हैं, जो इस तरह के गंभीर आरोपों से घिरे हैं। राजनीतिज्ञ आज आवश्यक बुराई हो गये हैं। पूर्व प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के उस दृढ़ कथन को कि भ्रष्टाचार विश्व जीवनशैली का अंग बन गया है, को दफना देना चाहिए। यह सच है कि आज हमारे अधिकांश कर्णधार सोये हुए हैं, पर सौभाग्य है कि एक-दो सजग भी हैं। न खाऊंगा और न खाने दूंगा की तर्ज पर उन्होंने पांच साल में एक भी आरोप न तो स्वयं पर नहीं लगने दिया और न अपनी सरकार पर। चौकीदार को चोर कहने वाले कोरा आरोप लगा रहे हैं, एक भी पुख्ता प्रमाण चोरी का प्रस्तुत नहीं कर पाएं हैं। ”सब चोर हैं” के राष्ट्रीय मूड में असली पराजित न राहुल हैं, न मोदी हैं बल्कि मतदाता नागरिक है। अगर यह सब आग इसलिए लगाई गई कि इससे राजनीति की रोटियां सेकीं जा सकें तो वे शायद नहीं जानते कि रोटियां सेकना जनता भी जानती है। आग लगाने वाले यह नहीं जानते की इससे क्या-क्या जलेगा? फायर ब्रिगेड भी बचेगी या नहीं? यह सब मात्र भ्रष्टाचार ही नहीं, यह राजनीति की पूरी प्रक्रिया का अपराधीकरण है। और हर अपराध अपनी कोई न कोई निशानी छोड़ जाता है। राहुल गांधी पर लगा आरोप भी ऐसी ही निशानी का प्रस्तुतीकरण है। आम राय बन चली है कि राजनीति अब मिशन नहीं, व्यवसाय बन गया है। सचमुच सम्मानजनक पेशे की बजाए, मोटा मुनाफा कमाने वाला व्यवसाय बन गया है। खुद पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने स्वीकार किया था कि अगर ऊपर से एक रुपया जनता के लिए चलता है तो नीचे आम आदमी तक सिर्फ 15 पैसा ही पहुंच पाता है। इसमें से कितने पैसे राजनीति में लगे लोगों तक पहुंचते हैं और कितना सहयोगी अफसरों की जेब में जाता होगा, इसे समझने के लिए किसी स्टिंग ऑपरेशन की जरूरत नहीं है। बढ़ते भ्रष्टाचार के अलावा परेशानी यह भी है कि लोकतंत्र किसी को भी राजनीति में आगे बढ़ने और लोगों की रहनुमाई का अधिकार देता है, लेकिन पैसे का खेल बन गई राजनीति उन लोगों को आगे बढ़ने से रोकती है, जिन पर लक्ष्मी की कृपा नहीं हुई। लोकतंत्र की अस्वस्थता एवं बीमार होने का यह स्पष्ट संकेत है कि ऐसे न जाने कितने सांसद हैं जो एक कार्यकाल में ही अप्रत्याशित तरीके से अमीर हो जाते हैं। कुछ ऐसी ही स्थिति विधायकों के मामले में भी देखने को मिलती है। जब ऐसे विधायक या सांसद दिन दूनी रात चौगुनी आर्थिक तरक्की करते हैं तब कहीं अधिक संदेह होता है जो न तो कारोबारी होते हैं और न ही राजनीति के अलावा और कुछ करते हैं। चुनाव का समय है, देश जानना चाहेगा कि आखिर जनप्रतिनिधियों के यकायक मालदार होने का राज क्या है? यह सही है कि विधायक और सांसद चुनाव के लिए नामांकन दाखिल करते समय हलफनामा देकर अपनी संपत्ति का विवरण देते हैं, लेकिन वे यह कभी नहीं बताते कि उनकी संपत्ति में इतनी तेजी से इजाफा कैसे हुआ? नतीजा यह होता है कि उनकी संपत्ति का विवरण महज एक खबर बनकर रह जाती है। यह इसलिए पर्याप्त नहीं, क्योंकि हाल में सामने आए एक आंकड़े के अनुसार 2014 में फिर से निर्वाचित हुए 153 सांसदों की औसत संपत्ति में 142 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई। यह प्रति सांसद औसतन 13.32 करोड़ रुपये रही। यह आंकड़ा यह भी कहता है कि भाजपा के 72 सांसदों की संपत्ति में 7.54 करोड़ रुपये की औसत उछाल आई और कांग्रेस के 28 सांसदों की संपत्ति में औसतन 6.35 करोड़ रुपये की। क्या इसे सामान्य कहा जा सकता है? क्या यह आंकड़ा यह नहीं इंगित करता कि कुछ लोगों के लिए राजनीति अवैध कमाई का जरिया बन गई है? प्रधानमंत्रीजी जब देश को भ्रष्टाचारमुक्त करने की बात करते हैं तो उन्हें पहले अपने घर को देखना होगा। एक चुनाव से दूसरे चुनाव के 5 बरसों के अन्तराल में जनप्रतिनिधियों की सम्पति में 10 गुना से 20 गुना तक वृद्धि हो जाती है। जबकि देश की अर्थव्यवस्था मात्र 8 प्रतिशत तक नहीं बढ़ पा रही है। इसमें दो राय नहीं कि सरकारी दफ्तरों में स्थानीय स्तर से लेकर नौकरशाहों के बीच तक भ्रष्टाचार की उलटी गंगा बह रही है। लेकिन एक बात तो स्पष्ट है कि राजनीतिक नेतृत्व ईमानदार हो तो मातहत कैसे भ्रष्टाचार कर सकते हैं? वास्तव में देश के भीतर भ्रष्टाचार की एक श्रृंखला बन चुकी है। देश में व्याप्त राजनीति में मूल्यों के पतन से भ्रष्टाचार की फसल लहलहा रही है। लेकिन सबसे चिंताजनक बात यह है कि राजनीति में धन व बल के बढ़ते वर्चस्व के चलते माफिया व आपराधिक तत्व राजसत्ता पर काबिज होने लगे हैं जिसके चलते भ्रष्टाचार का निरंतर पोषण जारी है। माना कि कुछ सांसद ऐसे हैं जो बड़े कारोबारी या फिर पुश्तैनी अमीर हैं, लेकिन आखिर इसका क्या मतलब कि सामान्य पृष्ठभूमि और केवल राजनीति ही करने वालों की संपत्ति पांच साल में दो-तीन गुनी हो जाए? दाल में कुछ तो काला है? विडंबना यह है कि इसे जानने का कोई उपाय नहीं कि कुछ जनप्रतिनिधियों की आय को पंख कैसे लग जाते हैं? शायद इसी कारण हाल में सुप्रीम कोर्ट ने इस पर नाराजगी जताई थी कि बेहिसाब संपत्ति अर्जित करने वाले जनप्रतिनिधियों पर निगाह रखने के लिए कोई स्थाई तंत्र क्यों नहीं बनाया गया है? ऐसा कोई तंत्र बनना समय की मांग है, क्योंकि किसी आम आदमी या फिर कारोबारी की संपत्ति में तनिक भी असामान्य उछाल दिखने पर उसे आयकर विभाग के सवालों से दो-चार होना पड़ता है। आखिर विधायक और सांसद विशिष्ट क्यों हैं? कानून की निगाह में राजा और रंक एक ही होने चाहिए। बेहतर हो कि लोकपाल भी इस सवाल पर विचार करे कि कुछ सांसद इतने कम समय में ही अत्यधिक अमीर कैसे हो जाते हैं? आज सांसद, विधायक ही नहीं छुटभैय्या नेता भी महंगी गाडियों में घूमते हैं। राजधानी के बड़े होटलों में ठहरते हैं। कोई उनसे यह नहीं पूछता कि अचानक उनके पास इतना धन कहां से आ गया है? वे सब नेता अपने घर से तो लाकर पैसा खर्च करने से रहे। उनके द्वारा खर्च किया जा रहा पैसा सत्ता में दलाली कर गलत तरीकों से कमाया हुआ होता है जिसे वे जमकर फिजूलखर्ची में उड़ाते हैं। जब तक सत्ता में दलाली, भ्रष्टाचार, घोटालों का खेल बन्द नहीं होगा, तब तक राजनीति में शुचिता, पारदर्शिता एवं ईमानदारी की बातें करना बेमानी ही होगा।

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