कौशल मूंदड़ा
कोरोना के कष्टदायी काल में स्कूलों ने बच्चों को बिजी करने के लिए या यूं कहें कि उनके दिमाग को पढ़ाई की तरफ बनाए रखने के लिए कई जतन किए। इसमें सबसे बड़ा नवाचार ऑनलाइन कक्षाओं के रूप में सामने आया। स्कूल सहित महाविद्यालयी स्तर तक के विद्यार्थियों के लिए यह कक्षाएं काफी उपयोगी साबित होने के दावे किए जा रहे थे, लेकिन इसका हश्र तब सामने आया जब पिछले दिनों स्कूल खुले और 9वीं से 12वीं तक ऑनलाइन पढ़ने वाले बच्चों की लिखित परीक्षाएं ली गईं। इन परिणामों ने ऑनलाइन कक्षाओं के भारतीय संस्करण में जबर्दस्त गुंजाइश का संकेत दे दिया है।
परिणाम आने पर शिक्षक तो चौंके ही, अभिभावक भी हैरान रह गए। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो सामान्यतौर पर स्थिति यह रही कि पिछली कक्षा में प्राप्तांकों से आधे अंक भी बच्चे प्राप्त करने में असमर्थ रहे। इसके बाद अभिभावकों ही नहीं, स्कूलों ने भी कक्षाकक्ष में पढ़ाई में ही भलाई समझी, खासतौर से 10वीं और 12वीं बोर्ड के विद्यार्थियों के लिए कक्षाकक्ष में मेहनत शुरू कर दी गई है।
कुछ शिक्षकों ने भी इस बात को महसूस किया कि फिजिकल क्लास का कोई मुकाबला नहीं हो सकता। कोरोना काल में विकल्प के तौर पर ऑनलाइन कक्षाओं का प्रयोग किया गया जो काफी हद तक बच्चों को पढ़ाई की ओर ध्यान लगाने में सफल भी रहा। लेकिन, बच्चों के लिखने की नियमितता और शिक्षकों के फॉलोअप प्रोसेस की नियमितता की कमी स्कूल खुलते ही उजागर हो गई।
कारण यह भी माना जा रहा है कि ऑनलाइन कक्षा में एमसीक्यू में उलझे बच्चे थ्योरी नहीं कवर कर पाए। पुस्तक पठन की प्रवृत्ति खत्म हो गई। वे सुनने में ही व्यस्त रहे। इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि ऑनलाइन क्लास के बाद नोटबुक में नोट्स उतारने के बजाय या लिखकर रिविजन करने के बजाय मोबाइल-लैपटॉप-कम्प्यूटर के सामने बैठे बच्चे ऑनलाइन क्लास के बाद यूट्यूब पर अन्य रोमांचक, दिलकश, आकर्षक लगने वाले वीडियो के जरिये ऑनलाइन कक्षाओं की थकान उतारने में व्यस्त रहे।
ऐसा होना भी लाजिमी इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि कोरोना लॉकडाउन से एकदिन पहले तक अभिभावक बच्चों से मोबाइल छीन रहे थे और लॉकडाउन लगते ही बच्चों को मोबाइल पकड़ाना मजबूरी हो गई। अब गूगल की दुनिया में सिर्फ ऑनलाइन क्लास तो है नहीं, तरह-तरह के आकर्षण भरे पड़े हैं जिनसे बड़े भी अछूते नहीं रह सकते तो बच्चों की क्या बिसात।
वरिष्ठ मनोविज्ञानी व समाजशास्त्री डॉ. विजयलक्ष्मी चौहान कहती हैं, कक्षाकक्ष में आई-टू-टाई कॉन्टेक्ट से एक स्पार्किंग होती है, जब बच्चा उस वातावरण में होता है तो उसकी तस्वीर उसके स्मृतिपटल पर अंकित हो जाती है, कक्षा के दौरान ही लिखने की प्रवृत्ति से उसकी मसल एक्सरसाइज और लिखने की क्षमता का विकास भी होता है। स्कूल खुलते ही आए परिणामों ने यह स्पष्ट किया है कि बच्चों और बड़ों में फर्क समझना होगा। महाविद्यालयी स्तर पर विद्यार्थियों को उनका लक्ष्य पता होता है, इस स्तर तक पहुंचते-पहुंचते वे स्वयं पठन-पाठन के वातावरण में ढले चुके होते हैं, लेकिन किशोरवय के विद्यार्थियों के लिए गूगल की दुनिया अनेक रोमांच से भरी पड़ी है और लड़कपन की उम्र उन्हें इससे बचने की गुंजाइश कम ही देती है।
परिणामों के पीछे के कारण समझना मुश्किल नहीं है। इस अनुभव ने ऑनलाइन के विचार को आत्मसात करने का विहंगम दृष्टिकोण दिया है। उन्होंने जोड़ा कि वैसे तो परीक्षाएं लेनी नहीं चाहिए थी और ली भी तो परिणाम नहीं बताने चाहिए थे, स्कूलों को अपने स्तर पर ही परिणाम रखकर आगे की कार्ययोजना बनानी चाहिए थी। परिणाम जारी करने से बच्चे हतोत्साहित हुए ही होंगे। बच्चे न तो पढ़ाई का पैटर्न समझ पाए न ही परीक्षा का।
इन सबसे अलग एक चर्चा और चल पड़ी है कि ऑनलाइन कक्षाओं को बेहतर साबित करने के पीछे मोटी फीस वसूलने की मंशा भी शामिल रही होगी, लेकिन ऑनलाइन कक्षाओं के हश्र ने सवाल तो खड़े कर ही दिए हैं और इसपर शिक्षानीतिज्ञों को भी विचार करने की जरूरत आन पड़ी है। निजी स्कूलों का मसला अपनी जगह है, सरकारी स्कूलों में तो ऑनलाइन पढ़ाई के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में मोबाइल ही उपलब्ध नहीं थे, कहीं उपलब्ध थे तो इंटरनेट नहीं था, कहीं इंटरनेट भी था तो नेटवर्क कमजोर था। ऐसे में सरकारी स्कूलों के बच्चों के लिए इस साल की पढ़ाई का परिणाम क्या रहेगा, उसके लिए अब सिर्फ 2 माह का ही समय शेष रहा है।
कुल मिलाकर यह अतिशयोक्ति नहीं कि भारतीय संस्कृति में प्राचीन गुरुकुल परम्परा से होते हुए स्कूल तक पहुंचने में भी शताब्दियां लगीं, लेकिन स्कूल से सीधे ही ऑनलाइन प्लेटफार्म पर शिक्षण का स्थानांतरण कोई स्विच ऑन-ऑफ करने जितना आसान नहीं है। आज फिर से गुरुकुल पद्धति की चर्चा होने लगी है और आवासीय विद्यालयों को इसी पद्धति का रूप कहा जा सकता है। ऑनलाइन शिक्षण सम्पूर्ण विद्याध्ययन का एक हिस्सा हो सकता है, सम्पूर्ण शिक्षण पद्धति नहीं।
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