झारखंड में कुर्सी रेस

-नवेंदु उन्मेष-

झारखंड में कुर्सी रेस चल रही है। इस रेस में शामिल होने के लिए टिकट प्राप्त करना जरूरी है। बगैर टिकट प्राप्त किए कोई भी नेता या व्यक्ति रेस में शामिल नहीं हो सकता। टिकट किसी भी तरह मिले। कोई भी दल दे। कोई भी दल टूटे या फूटे इससे किसी को कोई मतलब नहीं है। कुर्सी रेस में शामिल होना है तो टिकट चाहिए। एक नेता लंबे समय तक कांग्रेस में रहे। कांग्रेस ने विधायक बनाया, मंत्री बनाया। जब तक कांग्रेस के अच्छे दिन थे, वे कांग्रेस में तन-मन-धन से जुटे रहे। कांग्रेस कमजोर हो गई तो कांग्रेस को छोड़ दिया। फिर दूसरी पार्टी में आ गए। वहां जाकर कांग्रेस को गालियां दीं। कांग्रेस के खिलाफ जहर उगलते रहे। दूसरी पार्टी में गए तो वहां पद मिला। पद चलता रहा। जब उसने भी टिकट नहीं दी तो तीसरी पार्टी में चले गए। अब पूर्व के दो दलों को गाली दे रहे हैं। अब तीसरे दल से कुर्सी रेस में शामिल होने का टिकट मिल गया है तो रेस में शामिल हो गए हैं। मतलब साफ है जिधर पूड़ी उधर घुरी। जिधर खाने को पूड़ी मिले उधर घूम जाना बेहतर है। 19 साल बाद भाजपा और आजसू का गठबंधन भी टूट गया। इसे देखकर लगा जैसे बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से निकले, बहुत निकले मेरे अरमानए फिर भी कम निकले। भाजपा-लोजपा, भाजपा-जदयू के रिश्ते में भी खटास आई। अब सभी दलों के प्रत्याशी अपना-अपना मंडल-कमंडल लेकर चुनावी रेस में शामिल हैं। इससे जाहिर होता है कि दलों के अपने नीति सिद्धांत तो होते हैं, लेकिन नेताओं या कार्यकर्ताओं के नहीं। जाहिर है नेता भी अब कारपोरेट कंपनी के कर्मचारी की तरह काम करते हैं। अगर एक कंपनी नौकरी देने को तैयार न हो तो दूसरी कंपनी ज्वाइन कर लेते हैं। सिर्फ कहने को समाजसेवी हैं। समाज सेवा की आड़ में उन्हें समाज की मेवा की तलाश रहती है। इस मेवा को पाने के लिए कोई भी दल या सिद्धांत स्वीकार है। किसी भी दल का प्रमुख चोर-उचक्का या भ्रष्टाचारी क्यों न हो। सिर्फ टिकट दे। रेस में शामिल होने का मौका दे सब चलेगा। हालांकि अपराधी, माफिया, बलात्कारी कार्यकर्ता भी राजनीतिक दलों को पसंद हैं। उनमें सिर्फ माद्दा होना चाहिए चुनाव जीतने का। राजनीतिक दलों के लिए कार्यकर्ता या नेता वहीं स्वीकार है जो मेन- केन प्रकारेण चुनाव जीत सके। इसके अलावा वह कुछ भी करता हो। इससे उन्हें कोई मतलब नहीं है। रेसा के घोड़े को केवल चुनाव में जीतना चाहिए। चुनाव के वक्त रेस के घोड़े पूरी तरह ठोक बजाकर राजनीतिक दलों में लाए जाते हैं। उसके चाल, चरित्र और चेहरे को नहीं देखा जाता। वैसे कुर्सी के लिए हर युग में रेस होता रहा है। पहले राजे-महाराजे कुर्सी के लिए युद्ध करते थे। कत्लेआम करते थे। पराजित देश के निवासियों को लूट लेते थे। इतिहास बताता है कि कुर्सी के लिए युवराज ने राजा का कत्ल कर दिया। इसके बाद राजसिंहासन पर बैठ गया। सरकारी या निजी दफतरों में भी कुर्सी के लिए लड़ाई-झगड़ा होना आम बात है। सबसे बड़ी चीज कुर्सी है। हर काम कुर्सी के लिए है। थाने में बैठा दारोगा भी कुर्सी के लिए बड़े बाबू को कोसता मिलेगा। जो जहां है कुर्सी की तलाश में लगा है। उंची कुर्सी मिलते ही उससे उंची कुर्सी हासिल करना चाहता है। अगर उससे उंची कुर्सी मिल गई तो उससे उंची कुर्सी की तलाश में लग जाता है। जाहिर है सब को कुर्सी चाहिए।

This post has already been read 7521 times!

Sharing this

Related posts