झारखंड के अमर वीर सेनानी ‘धरती आबा’ बिरसा मुंडा

लेखक : चंदन मिश्र

देश आजादी की 75 वीं वर्षगांठ मना रहा है। सरकार ने इसे अमृत महोत्सव की संज्ञा दी है। यह अवसर है जब देश की आजादी के 75 साल पूरे होने की असली खुशी को हर नागरिक हृदयंगम करे। देश की वर्तमान पीढ़ी ने आजादी की लड़ाई तो देखी नहीं है, लेकिन आजादी दिलानेवाले देश के वीर सेनानियों के बारे में जरूर पढ़ा और सुना है। अपने देश के हर प्रांत में ऐसे कई वीर सपूत हुए हैं, जिन्होंने आजादी की लड़ाई में अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया है। अपने प्राणों की आहुति दी। आज देश के इतिहास में अमर हो गए। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारतभूमि पर ऐसे कई नायक पैदा हुए जिन्होंने इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों से लिखवाया है।

एक छोटी सी आवाज को नारा बनने में देर नहीं लगती बस दम उस आवाज को उठाने वाले में होना चाहिए और इसकी जीती जागती मिसाल थे- बिरसा मुंडा। बिरसा मुंडा ने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में अहम भूमिका निभायी। देश के पूर्व राष्ट्रपति दिवंगत एपीजे अब्दुल कलाम ने रांची में आकर कहा था- बिरसा मुंडा झारखंड के ब्रांड एम्बेसडर हैं। बिरसा मुंडा ने लोगों के बीच सामाजिक चेतना जगाई। क्षेत्र के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक स्वायतता के लिए फिरंगियों से दो-दो हाथ किया। इस क्षेत्र (तत्कालीन बिहार राज्य के जनजातीय बहुल क्षेत्र दक्षिण बिहार) के सामाजिक जनचेतना के अग्रदूत बिरसा मुंडा ने छोटी सी उम्र में भारत माता की आजादी के लिए अंग्रेजों से लड़कर अपनी कुर्बानी दी। आज भी उनकी वीर गाथा झारखंड के गांव-गांव में सुनी-सुनाई जाती है।

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अपने कार्यों और आंदोलन की वजह से झारखंड में लोग बिरसा मुंडा को भगवान की तरह पूजते हैं। बिरसा मुण्डा ने मुंडा विद्रोह, पारम्परिक भू-व्यवस्था के जमींदारी व्यवस्था में बदलने के कारण किया। बिरसा मुण्डा ने अपनी सुधारवादी प्रक्रिया के तहत सामाजिक जीवन में एक आदर्श प्रस्तुत किया। उन्होंने नैतिक आचरण की शुद्धता, आत्म-सुधार और एकेश्वरवाद का संदेश दिया। उन्होंने ब्रिटिश सत्ता के अस्तित्व को अस्वीकारते हुए अपने अनुयायियों को सरकार को लगान न देने का आदेश दिया था।

1857 ई. के बाद मुंडाओं ने सरदार आन्दोलन चलाया जो एक शांत प्रकृति का आन्दोलन था. पर इससे आदिवासियों की स्थिति में कोई ख़ास परिवर्तन नहीं आया. मुंडाओं ने आगामी आन्दोलन को उग्र रूप देने का निर्णय लिया. सरदार आन्दोलन के ठीक विपरीत बिरसा मुंडा आन्दोलन उग्र और हिंसक था. इस आन्दोलन के नेता बिरसा मुंडा, एक पढ़े-लिखे युवा नेता थे. यह आन्दोलन विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति के लिए शुरू किया गया था. इसलिए इसका स्वरूप भी मिश्रित था. यह आन्दोलन आर्थिक, राजनीतिक परिवर्तन और धार्मिक पुनरुत्थान जैसे विभिन्न उद्देश्यों को प्राप्त करने की इच्छा रखता था.

बिरसा आन्दोलन का आर्थिक उद्देश्य था दिकू जमींदारों (गैर-आदिवासी जमींदार) द्वारा हथियाए गए आदिवासियों की कर मुक्त भूमि की वापसी जिसके लिए आदिवासी लम्बे समय से संघर्ष कर रहे थे. मुंडा समुदाय सरकार से न्याय पाने में असमर्थ रहे. इस असमर्थता से तंग आ कर उन्होंने अंग्रेजी राज को समाप्त करने और मुंडा राज की स्थापना करने का निर्णय लिया. वे सभी ब्रिटिश अधिकारीयों और ईसाई मिशनों को अपने क्षेत्र से बाहर निकाल देना चाहते थे. बिरसा मुंडा ने एक नए धर्म का सहारा लेकर मुंडाओं को संगठित किया. उनके नेतृत्व में मुंडाओं ने 1899-1900 ई. में विद्रोह किया।

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बिरसा मुंडा आदिवासियों की दयनीय हालत को देखकर उन्हें जमींदारों और ठेकेदारों के अत्याचार से मुक्ति दिलाना चाहते थे। बिरसा मुंडा ने अनुभव किया था कि शांतिपूर्ण तरीकों से आन्दोलन चलाने का परिणाम व्यर्थ होता है। इसलिए उन्होंने इस आन्दोलन को उग्र बनाने के लिए अधिक से अधिक नवयुवकों को संगठित किया। मुंडाओं ने उन्हें अपना भगवान् मान लिया। उनका प्रत्येक शब्द मुंडाओं के लिए मानो ब्रह्मवाक्य बन गया। बिरसा मुंडा ने घोषणा की कि कोई भी सरकार को कर नहीं दे। मुंडाओं ने उनकी बातें मानी और पालन किया।

1895 ई. में बिरसा मुंडा को विद्रोह फैलाने और राजविरोधी षड्यंत्र करने के अपराध में गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें दो वर्ष की कैद की सजा मिली। जेल से रिहा होने के बाद वह और भी सक्रिय होकर और अधिक गर्मजोशी से आदिवासी युवाओं को आन्दोलन के लिए प्रेरित करने लगे। जंगल में छिपकर गुप्त सभाएँ आयोजित की जाती थीं और सभी को आन्दोलन में भाग लेने के लिए प्रेरित किया जाता था। वे स्वयं महारानी विक्टोरिया के पुतले पर तीरों से वार करके तीरंदाजी का अभ्यास करते थे। बिरसा मुंडा आन्दोलन में कई निर्दोष लोगों की भी हत्या हुई जिनका कसूर सिर्फ इतना था कि वे सरकारी नौकर थे।

1899 ई. में क्रिसमस के दिन मुंडाओं का व्यापक और हिंसक विद्रोह शुरू हुआ। सबसे पहले जो मुंडा ईसाई बने थे और जो लोग सरकार के लिए काम करते थे, उन्हें मारने का प्रयास किया गया लेकिन बाद में इस नीति में परिवर्तन किया गया क्योंकि अपना धर्म बदलने वाले मुंडा थे तो अपने ही समुदाय के! इसलिए उन्हें छोड़ सरकार और मिशनरियों के विरुद्ध आवाज़ उठने लगी। राँची और सिंहभूम में अनेक चर्चों में मुंडा आदिवासी समूह ने आक्रमण किया। पुलिस मुंडाओं के क्रोध का विशेष शिकार बनी। इस विद्रोह का प्रभाव पूरे छोटानागपुर में फ़ैल गया।

चिंतित होकर सरकार ने इस विद्रोह का दमन करने का निर्णय लिया। सरकार ने पुलिस और सेना की सहायता ली। मुंडाओं ने छापामार युद्ध का सहारा लेकर पुलिस और सेना का सामना किया लेकिन बन्दूक के सामने तीर-धनुष कब तक टिकती ? फरवरी 1900 ई. में बिरसा एक बार फिर से गिरफ्तार कर लिए गए। उन्हें राँची के जेल में रखा गया. उनपर सरकार ने राजद्रोह का मुकदमा चलाया। बिरसा की मृत्यु के बाद बिरसा मुंडा आन्दोलन शिथिल पड़ गया। बिरसा के तीन प्रमुख सहयोगियों को फाँसी की सजा दी गई। अनेक मुंडाओं को जेल में ठूस दिया गया। परिणामस्वरूप बिरसा मुंडा आन्दोलन विफल हो गया। आदिवासियों को इस आन्दोलन से तत्काल कोई लाभ प्राप्त नहीं हुआ परन्तु सरकार को उनकी गंभीर स्थिति पर विचार करने के लिए बाध्य होना पड़ा। आदिवासियों की जमीन का सर्वे करवाया गया। 1908 ई. में ही छोटानागपुर काश्तकारी कानून (Chotanagpur Tenancy Act, 1908) पारित हुआ। मुंडाओं को जमीन सम्बंधित कई अधिकार मिले और बेकारी से उन्हें मुक्ति मिली।

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बिरसा मुंडा का जन्म खूंटी जिले के उलिहातू गांव में वर्ष 1875 में हुआ था। सुगना मुंडा और करमी मुंडाइन के पुत्र बिरसा मुंडा के मन में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ बचपन से ही विद्रोह था। साल्गा गांव में प्रारंभिक पढ़ाई के बाद वे चाईबासा इंग्लिश मिडिल स्कूल में पढ़ने गए।

बचपन में बिरसा मुंडा एक बेहद चंचल बालक थे। अंग्रेजों के बीच रहते हुए वह बड़े हुए। बचपन का अधिकतर समय उन्होंने अखाड़े में बिताया। हालांकि गरीबी की वजह से उन्हें रोजगार के लिए समय-समय पर अपना घर बदलना पड़ा। इसी भूख की दौड़ ने ही उन्हें स्कूल की राह दिखाई और उन्हें चाईबासा इंग्लिश मिडिल स्कूल में पढ़ने का मौका मिला।

चाईबासा में बिताए चार सालों ने बिरसा मुंडा के जीवन पर गहरा असर डाला। 1895 तक बिरसा मुंडा एक सफल नेता के रूप में उभरने लगे जो लोगों में जागरुकता फैलाना चाहते थे। 1894 में आए अकाल के दौरान बिरसा मुंडा ने अपने मुंडा समुदाय और अन्य लोगों के लिए अंग्रेजों से लगान माफी की मांग के लिए आंदोलन किया।

1895 में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में दो साल के कारावास की सजा दी गयी। लेकिन बिरसा और उनके शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की सहायता करने की ठान रखी थी। यही कारण रहा कि अपने जीवन काल में ही उन्हें एक महापुरूष का दर्जा मिला। उन्हें उस इलाके के लोग “धरती आबा” के नाम से पुकारा और पूजा करते थे। उनके प्रभाव की वृद्धि के बाद पूरे इलाके के मुंडाओं में संगठित होने की चेतना जागी। 1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे और बिरसा और उसके चाहने वाले लोगों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया। अगस्त 1897 में बिरसा और उसके चार सौ सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूंटी थाने पर धावा बोला। 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेज सेनाओं से हुई जिसमें पहले तो अंग्रेजी सेना हार गयी। लेकिन बाद में इसके बदले उस इलाके के बहुत से आदिवासी नेताओं की गिरफ़्तारियां हुईं। जनवरी 1900 में जहां बिरसा अपनी जनसभा संबोधित कर रहे थे, डोम्बारी बुरू (पहाड़ी) पर एक और संघर्ष हुआ था, जिसमें बहुत सी औरतें और बच्चे मारे गये थे।

बाद में बिरसा के कुछ शिष्यों की गिरफ़्तारी भी हुई थी। अंत में स्वयं बिरसा मुंडा 3 फरवरी, 1900 को चक्रधरपुर में गिरफ़्तार हुए। बिरसा मुंडा को गिरफ्तार कर रांची जेल लाया गया। यहां उन्हें अंग्रेजों ने खाने में जहर मिलाकर दिया। धीरे-धीरे उनका स्वास्थ्य खराब होने लगा। बिरसा मुंडा ने रांची जेल में 9 जून 1900 को अपनी अंतिम सांसें ली।मात्र 25 वर्ष की कम आयु में उन्होंने देशहित में अपने प्राणों की बाजी लगा दी। आज भी बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में बिरसा भगवान की तरह पूजे जाते हैं।बिरसा मुंडा सचमुच धरती आबा थे। जनजातीय समुदाय के लिए धरती के भगवान थे, जिन्होंने लोगों को सामाजिक, आर्थिक और अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति दिलाने के लिए जोरदार संघर्ष किया।

भारतीय इतिहास में बिरसा मुंडा एक ऐसे नायक थे, जिन्होंने भारत के झारखंड में अपने क्रांतिकारी चिंतन से उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में आदिवासी समाज की दशा और दिशा बदलकर नवीन सामाजिक और राजनीतिक युग का सूत्रपात किया।

बिरसा मुंडा ने साहस की स्याही से पुरुषार्थ के पृष्ठों पर शौर्य की शब्दावली रची। उन्होंने हिन्दू धर्म और ईसाई धर्म का बारीकी से अध्ययन किया तथा इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि आदिवासी समाज मिशनरियों से तो भ्रमित है ही हिन्दू धर्म को भी ठीक से न तो समझ पा रहा है, न ग्रहण कर पा रहा है।

बिरसा मुंडा ने महसूस किया कि आचरण के धरातल पर आदिवासी समाज अंधविश्वासों की आंधियों में तिनके-सा उड़ रहा है तथा आस्था के मामले में भटका हुआ है। उन्होंने यह भी अनुभव किया कि सामाजिक कुरीतियों के कोहरे ने आदिवासी समाज को ज्ञान के प्रकाश से वंचित कर दिया है। धर्म के बिंदु पर आदिवासी कभी मिशनरियों के प्रलोभन में आ जाते हैं, तो कभी ढकोसलों को ही ईश्वर मान लेते हैं।

भारतीय जमींदारों और जागीरदारों तथा ब्रिटिश शासकों के शोषण की भट्टी में आदिवासी समाज झुलस रहा था। बिरसा मुंडा ने आदिवासियों को शोषण की नाटकीय यातना से मुक्ति दिलाने के लिए उन्हें तीन स्तरों पर संगठित करना आवश्यक समझा।

  1. पहला तो सामाजिक स्तर पर ताकि आदिवासी-समाज अंधविश्वासों और ढकोसलों के चंगुल से छूट कर पाखंड के पिंजरे से बाहर आ सके। इसके लिए उन्होंने ने आदिवासियों को स्वच्छता का संस्कार सिखाया। शिक्षा का महत्व समझाया। सहयोग और सरकार का रास्ता दिखाया।
    सामाजिक स्तर पर आदिवासियों के इस जागरण से जमींदार-जागीरदार और तत्कालीन ब्रिटिश शासन तो बौखलाया ही, पाखंडी झाड़-फूंक करने वालों की दुकानदारी भी ठप हो गई। यह सब बिरसा मुंडा के खिलाफ हो गए। उन्होंने बिरसा को साजिश रचकर फंसाने की काली करतूतें प्रारंभ की। यह तो था सामाजिक स्तर पर बिरसा का प्रभाव। काले कानूनों को चुनौती देकर बर्बर ब्रिटिश साम्राज्य को सांसत में डाल दिया।
  2. दूसरा था आर्थिक स्तर पर सुधार ताकि आदिवासी समाज को जमींदारों और जागीरदारों क आर्थिक शोषण से मुक्त किया जा सके। बिरसा मुंडा ने जब सामाजिक स्तर पर आदिवासी समाज में चेतना पैदा कर दी तो आर्थिक स्तर पर सारे आदिवासी शोषण के विरुद्ध स्वयं ही संगठित होने लगे। बिरसा मुंडा ने उनके नेतृत्व की कमान संभाली। आदिवासियों ने ‘बेगारी प्रथा’ के विरुद्ध जबर्दस्त आंदोलन किया। परिणामस्वरूप जमींदारों और जागीरदारों के घरों तथा खेतों और वन की भूमि पर कार्य रूक गया।
  3. तीसरा था राजनीतिक स्तर पर आदिवासियों को संगठित करना। चूंकि उन्होंने सामाजिक और आर्थिक स्तर पर आदिवासियों में चेतना की चिंगारी सुलगा दी थी, अतः राजनीतिक स्तर पर इसे आग बनने में देर नहीं लगी। आदिवासी अपने राजनीतिक अधिकारों के प्रति सजग हुए।

बिरसा मुंडा सही मायने में पराक्रम और सामाजिक जागरण के धरातल पर तत्कालीन युग के एकलव्य और स्वामी विवेकानंद थे। बिरसा मुंडा की गणना महान देशभक्तों में की जाती है। ब्रिटिश हुकूमत ने इसे खतरे का संकेत समझकर बिरसा मुंडा को गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया। वहां अंग्रेजों ने उन्हें धीमा जहर दिया था।

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