वित्तीय घाटे का भ्रम जाल

-भरत झुनझुनवाला-

वर्तमान मंदी के तमाम कारणों में एक कारण सरकार की वित्तीय घाटे को नियंत्रण करने की नीति है। वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा है कि परिस्थिति को देखते हुए हम वित्तीय घाटे के लक्ष्य को आगामी बजट में निर्धारित करेंगे। उनके इस मंतव्य का स्वागत है। उन्होंने यह भी कहा है कि वित्तीय घाटे को नियंत्रित करने के लिए सरकार अपने खर्चों में कटौती नहीं करेगी, लेकिन पिछले छह वर्षों में सरकार के पूंजी खर्च सिकुड़ते गए हैं और यह आर्थिक मंदी को लाने का एक कारण दिखता है। वित्तीय घाटे को नियंत्रण करने की नीति मूलतः भ्रष्ट सरकारों पर अंकुश लगाने के लिए बनाई गई थी। सत्तर के दशक में दक्षिण अमरीका के देशों के नेता अति भ्रष्ट थे। वे अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक से ऋण लेकर उस रकम को स्विस बैंक में अपने व्यक्तिगत खातों में हस्तांतरित कर रहे थे। इस समस्या से छुटकारा पाने के लिए विश्व बैंक, मुद्रा कोष और अमरीकी सरकार के बीच सहमति बनी कि आगे विकासशील देश की सरकारों को ऋण देने के स्थान पर उन्हें प्रेरित किया जाए कि वे बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा निजी निवेश को आकर्षित करें। तब वह रकम सरकार के दायरे से बाहर हो जाएगी और उस रकम का रिसाव नहीं हो सकेगा। इसके बाद बहुराष्ट्रीय कंपनियों को आकर्षित करने का प्रश्न उठा। मन गया कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां उन देशों में निवेश करती हैं जहां की सरकारों को वे जिम्मेदार एवं संयमित मानती हैं। इसलिए नीति बनाई गई कि विकासशील देशों की सरकारें अपने वित्तीय घाटे को नियंत्रण में रखें। बताते चलें कि वित्तीय घाटा वह रकम होती है जो सरकार अपनी आय से अधिक खर्च करती है। सरकार की आय यदि 100 रुपए है और खर्च 120 रुपए है तो 20 रुपए वित्तीय घाटा होता है। विचार यह बना कि यदि विकासशील देशों की सरकारें अपने खर्चों को अपनी आय के अनुरूप रखेंगी तो अर्थव्यवस्था में महंगाई नहीं बढ़ेगी, अर्थव्यवस्था स्थिर रहेगी। जिसे देखते हुए बहुराष्ट्रीय कंपनियां उन देशों में निवेश करने को उद्यत होंगी। वित्तीय घाटे को नियंत्रित करने का मंत्र मूलतः भ्रष्ट सरकारों पर लगाम लगाने के लिए बनाया गया था। भारत का अब तक का प्रत्यक्ष अनुभव बताता है कि वित्तीय घाटे को नियंत्रित करने से विदेशी निवेश वास्तव में आया नहीं है। कारण यह है कि जब सरकार अपने वित्तीय घाटे को नियंत्रित करती है तो वह बुनियादी संरचना जैसे बिजली, टेलीफोन, हाईवे इत्यादि में निवेश कम करती है और इस निवेश के अभाव में बुनियादी संरचना लचर हो जाती है और बहुराष्ट्रीय कंपनियां नहीं आती हैं। सोचा गया था कि यदि सरकार अपने वित्तीय घाटे को कम करने के लिए निवेश में कुछ कटौती भी करे तो उससे ज्यादा विदेशी निवेश आएगा और सरकार द्वारा निवेश में की गई कटौती की भरपाई हो जाएगी, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। वित्तीय घाटे को नियंत्रित करने के लिए सरकार द्वारा अपने खर्चों में जो कटौती की जा रही है उससे बुनियादी संरचना नहीं बन रही है और विदेशी निवेश भी नहीं आ रहा है। वित्तीय घाटे को नियंत्रित करने का मंत्र पूरी तरह फेल हो गया है, लेकिन इस अनुभव के बावजूद इस मंत्र का बहुराष्ट्रीय संस्थाएं और अमरीकी महाविद्यालयों में भारतीय प्रोफेसर पुरजोर प्रचार-प्रसार कर रहे हैं। इनका मानना है कि यदि सरकार वित्तीय घाटे पर और सख्ती से नियंत्रण करेगी तो विदेशी निवेश आएगा। मंत्र है कि कमजोर बच्चे को घर में भोजन कम दो जिससे वह विद्यालय में मिलने वाली मिड-डे मील का सेवन करे, लेकिन सत्यता यह है कि विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और अमरीकी यूनिवर्सिटियों में कार्यरत भारतीय मूल के प्रोफेसर सब बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों को बढ़ाना चाहते हैं जिनके द्वारा वे पोषित होते हैं। उनके लिए भारत के उद्यमियों और भारत के आर्थिक विकास का महत्त्व नहीं है। उनके लिए महत्त्वपूर्ण यह है कि भारत की घरेलू कंपनियां दबाव में रहें और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को खुला मैदान मिले। इसलिए वे चाहते हैं कि भारत की सरकार अपने खर्च कम करे जिससे कि घरेलू निवेश दबाव में आए, देश की बुनियादी संरचना लचर पड़ी रहे, देश का घरेलू निवेश कम हो, जिसके कारण बहुराष्ट्रीय कंपनियों को निवेश करने का खुला मैदान मिल जाए, लेकिन जिस बुनियादी संरचना के अभाव में घरेलू निवेश नहीं होता है, उसी संरचना के अभाव में विदेशी निवेश भी नहीं आता है, अतः वित्त मंत्री को इस समय देश के वित्तीय घाटे को बढ़ने देना चाहिए और लिए गए ऋण का उपयोग निवेश में करना चाहिए। खतरा यह है कि यदि ऋण की रकम का उपयोग सरकारी खपत के लिए किया गया तो अर्थव्यवस्था और परेशानी में आएगी। जरूरत इस बात की है कि सरकार ऋण लेकर निवेश करे और ऋण लेकर खपत न करे। जैसे यदि एक उद्यमी ऋण लेकर नई फैक्टरी लगता है तो वह ऋण सार्थक होता है, लेकिन वही उद्यमी यदि ऋण लेकर विदेश यात्रा करता है तो उससे कंपनी डूबती है। हमारी वर्तमान सरकार ईमानदार दिखती है, इसलिए इस सरकार के लिए सभंव है कि ऋण लेकर निवेश करे। भ्रष्टाचार के आधार पर बनाई गई वित्तीय घाटे को नियंत्रित करने की नीति को त्याग देना चाहिए और ईमानदारी से ऋण लेकर भारत सरकार को निवेश बढ़ाने चाहिए। यहां ध्यान देने की बात है यदि सरकार का वित्तीय घाटा बढ़ता है और साथ में महंगाई बढ़ती है तो घरेलू निवेशकों पर दुष्प्रभाव नहीं पड़ता है क्योंकि उनके निवेश की कीमत भी महंगाई के अनुसार बढ़ती जाती है। जैसे यदि आपने दस लाख रुपए में दुकान खरीदी और महंगाई बढ़ गई तो दो साल बाद उस दुकान की कीमत बारह लाख रुपए हो जाएगी, लेकिन विदेशी निवेशकों के लिए यह बात उलटी पड़ती है। यदि उन्होंने दस लाख में दुकान खरीदी और दो साल में वह 12 लाख में बिकी, लेकिन महंगाई के कारण भारत के रुपए का मूल्य घट गया। जब उस 12 लाख की रकम को डालर में परिवर्तित किया गया है तो उन्हें घाटा लगता है। इसलिए हमें वित्तीय घाटे को बढ़ने देना चाहिए और उस रकम को निवेश में लगाना चाहिए। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की वकालत कर रहे विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और अमरीकी यूनिवर्सिटियों में कार्यरत भारतीय प्रोफेसरों की बात को नहीं सुनना चाहिए।

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