पुनर्जन्म का आधार अभिलाषा है

हृदयनारायण दीक्षित जीवन सरल है, तरल है और विरल भी। संसार का प्रत्येक व्यक्ति अनेक अभिलाषाओं से भरा पूरा है। अभिलाषाएं कभी पूरी नहीं होती। अनंत है अभिलाषाएं। एक पूरी हुई दूसरी सामने है। मेरे मन में जीवन को समझने की अभिलाषा रही है। यह कठिन कार्य है। लेकिन स्वयं को पूरा समझने में जीवन की समझ अपने आप आ जाती है। स्वयं को समझने की अभिलाषा जीवन को वस्तुतः जीवन को समझने के लिए पर्याप्त है।
भारतीय चिंतन में अभिलाषाओं को पूरा करने पर जोर नहीं है। सभी अभिलाषाएं पूरी नहीं होती। वे सतत कर्म के लिए प्रेरित करती है। सतत् कर्म भी इच्छानुसार परिणाम नहीं देते। गीता में कर्म प्रेरणा है लेकिन कर्म फल की इच्छा त्यागने का निर्देश है। कर्म सक्रियता अच्छी बात है लेकिन कर्मफल की इच्छा दुखी करती है। मैं लगातार कर्म करता हूँ। मुझे इच्छानुसार कर्मफल नहीं मिलता। जान पड़ता है कि कर्मफल की कोई नियमावली नहीं है। हमारे पूर्वजों ने पुनर्जनम का सिद्धांत माना है। कर्मफल प्राप्त करने के लिए यहां अनेक जन्मों के अवसर हैं। बताते हैं कि मृत्यु के बाद जीवन का पूर्ण अवसान नहीं होता। शरीर समाप्त हो जाता है लेकिन जीवन चेतना का एक भाग शेष रहता है। वह अपनी प्रकृति के अनुसार पुनर्जन्म पाता है। पीछे जन्म के कर्मफल भी पाता है।
मैं पुनर्जन्म के सम्बन्ध में असमंजस में हूँ। कभी-कभी पुनर्जन्म सही लगता है और कभी-कभी व्यर्थ की बात। यहां पुनर्जन्म के साथ मोक्ष सिद्धांत भी है। मोक्ष संभवतः जीवन चक्र से मुक्त मनःस्थिति है। बुद्ध भी पुनर्जन्म मानते थे। उन्होंने इसे निर्वाण कहा है। बुद्ध ने संसार को दुख से परिपूर्ण बताया है। जन्म दुखदाई है, जीवन दुखपूर्ण है, वृद्धावस्था दुखमय है और मृत्यु भी। क्या मृत्यु के बाद बार-बार पुनर्जन्म के इस चक्र से मुक्ति संभव है। बुद्ध ने बताया कि मुक्ति संभव है। हिन्दू परंपरा भी मुक्ति या मोक्ष का सिद्धांत मानती है। पुनर्जन्म सिद्धांत हिन्दू चिंतन की विशेष मान्यता है। अभिलाषा शून्यता को मोक्ष कहा जाता है। माना गया है कि तृप्त मनुष्य का पुनर्जन्म नहीं होता। इच्छा से भरे पूरे अतृप्त लोगों का जन्म बार-बार होता है और मृत्यु भी। अभिलाषाएं मुझे व्यथित नहीं करती। तनाव भी नहीं देती। एक वरिष्ठ राजनेता की प्रतिष्ठित पुस्तक का नाम है ‘‘वन लाइफ इज नाट एनफ’’- उनके अनुसार संसार भोगने कि लिए एक जीवन पर्याप्त नहीं है। मैं उनसे सहमत नहीं हूँ। हमारी असहमति वैचारिक नहीं है। यह अनुभव जन्य है।
पुनर्जन्म का आधार अभिलाषा है। जीवन में बहुत कुछ मनचाहा मिलता है और बहुत कुछ मनचाहा नहीं मिलता। अनेक शुभ कर्मों के परिणाम मिलते है, अनेक शुभ कर्मों के सुफल नहीं मिलते। इनकी प्राप्ति की अतृप्त अभिलाषा जीवन में दीर्घकाल चाहती है। मनुष्य और ज्यादा पाने के लिए लम्बा जीवन चाहता है। वैदिक पूर्वज 100 शरद वर्ष जीने की स्तुति करते थे। वैसे शरीर 100 साल तक कर्म करने योग्य नहीं रहता, लेकिन सभी मनुष्य जीना चाहते हैं। क्या पुनर्जन्म अधूरी अभिलाषाएं पूर्ति करने के अवसर देता है? पुनर्जन्म के विद्वान समर्थक व उपनिषदों के ऋषि जीवन को दुखमय बताते हैं और मोक्ष या मुक्ति का पक्ष लेते हैं। मोक्ष का अर्थ है सांसारिक लगाव से मुक्त चित्त दशा। 
संसार कर्म क्षेत्र है। परिणाम की अभिलाषा कर्म प्रेरित करती है। भारतीय चिंतन में कर्मफल की इच्छा न रखने पर जोर है लेकिन अभिलाषा शून्य चित बड़ी बात है। अपने कर्म का परिणाम मैं भी चाहता हूँ। लेकिन अपेक्षित परिणाम न मिलने के कारण असंतुष्ट नहीं हूँ। अस्तित्व गलती नहीं करता। मेरे लेखे संसार दुखमय नहीं है। यह आनंद से भरा पूरा है। निःसंदेह यहां सुख के साथ दुख भी है। अस्तित्व की अनुकूलता प्रसाद है और प्रतिकूलता विषाद। अस्तित्व की प्रतिकूलता की स्थिति को भी क्या अपने अनुकूल नहीं बनाया जा सकता? मैं सोचता हूँ कि ऐसा संभव है। हम स्वयं प्रतिकूल अस्तित्व के अनुसार होकर ऐसा कर सकते हैं। वैदिक सिद्धांत में ऋत का अनुसरण ‘‘ऋतस्य यथा प्रेतः’’ प्रशंसनीय कहा गया है।
दार्शनिक दृष्टि में कर्तापन भोक्तापन ही संसार है। हम सब कर्म करते हैं। मन में कर्तापन का भाव रहता है कि यह काम मैंने किया है। अहंकार बढ़ता है और आत्म विश्वास भी। कर्मों के परिणाम आते हैं। हम कर्म परिणामों का सुख या दुख भोगते हैं। यही चित्त में भोक्तापन का भाव पैदा करता है। हम सब प्रायः स्वयं को दोहराते रहते हैं। कभी-कभी अनुभवोें के आधार पर स्वयं को संशोधित भी करते हैं। इस कार्रवाई से भी अपेक्षित परिणाम नहीं आते और कभी-कभी आते भी हैं। जीवन में अनिश्चिता का सिद्धांत चलता है। 
जीवन सरल रेखा में नहीं चलता। इसमें दो और दो चार ही नहीं होते। कभी अनायास बड़ी उपलब्धि मिलती है, कभी-कभी अनायास तमाम दुखों के पहाड़ गिरते है। इन्हें सौभाग्य या दुर्भाग्य कहते हैं। भाग्य का अर्थ अकारण मिला अच्छा या बुरा फल है। यद्यपि संसार में कार्य-कारण का चक्र चलता है। लेकिन हमको कारण नहीं दिखाई पड़ते। असफलता मुझे असंतुष्ट नहीं करती। कई जीवन की अपेक्षाएं भारत में ही संभव है। यहां पुनर्जन्म मान्यता है। कुछ लोगों को लगता है कि एक जीवन में अपेक्षित सुख नहीं मिला। शुभ कर्म करना श्रेष्ठ है। इससे दूसरा जन्म मिलता है। गीता (अध्याय 6.37-43) में अर्जुन ने पुनर्जन्म सम्बन्धी प्रश्न पूछा कि, ‘‘योग साधना में रत असफल योगी की गति क्या है? क्या ज्ञान मार्ग में असफल व्यक्ति छिन्न-भिन्न बादल की तरह नष्ट तो नहीं हो जाता?‘‘ श्रीकृष्ण का उत्तर ध्यान देने योग्य है- ‘‘असफल योगी पवित्रात्माओं के लोक में वर्षों सुख भोगने के बाद श्रेष्ठ परिवार में जन्म लेता है। वह ऐसा जन्म पाकर पूर्व जन्म की दिव्य चेतना को फिर से प्राप्त करता है। वह फिर पूर्ण सफलता के प्रयास करता है।’’
गीता उपनिषद् दर्शन का पराग है। गीता पुनर्जन्म के सिद्धांत पर अटल है। दूसरे अध्याय (श्लोक 27) में कहते हैं, ‘‘जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है। मृत्यु के पश्चात पुनर्जन्म भी निश्चित है।’’ पुनर्जन्म की अनिवार्यता विचारणीय है। गीता और उपनिषदों की पुनर्जन्म अनिवार्यता का आधार ब्रह्म प्राप्ति है। बताते हैं कि ब्रह्म प्राप्ति के बाद पुनर्जन्म नहीं होता। ब्रह्म वैयक्तिक इकाई नहीं है। साधक की ब्रह्म प्राप्ति वस्तुतः एक परम अनुभूति है। उपनिषदों के अनुसार तब कुछ भी जानने या प्राप्त करने के लिए शेष नहीं रह जाता। संसार कर्म क्षेत्र भोग क्षेत्र है। योग क्षेत्र भी है। मोक्ष प्राप्ति के लिए भी साधना का क्षेत्र भी यही संसार है। मनुष्य के मन में अनंत अभिलाषाएं हैं। वे सभी पूरी नहीं होती। जीवन पहले ही नष्ट हो जाता है। भौतिक प्राप्तियां भी अनंत हैं। सो एक जीवन पर्याप्त नहीं जान पड़ता।
हमारी अभिलाषाएं अनंत है। वे पूरी नहीं होती। शरीर में रोग पैदा होते हैं वृ़द्धावस्था आती है। वृ़द्धावस्था में शरीर जीर्ण होता है। यह प्राकृतिक है और अंततः मृत्यु भी। इसी आधार पर संसार को दुखमय कहा जाता है। वस्तुतः सुख और दुख मनुष्य की विशेष चित्त दशाएं हैं। संसार दुखमय नहीं है। तैतिरीय उपनिषद् में व्यक्ति में कई कोष बताए गए हैं। पहला कोष अन्नमय है। मनुष्य अन्न से बनता है। हम अन्न पर आश्रित हैं। स्थूल अन्नमय के भीतर प्राणमय कोष है। प्राण से जीवन है। फिर प्राणमय कोष के भीतर मनोमय कोष है। मन ही दुख और सुख का अनुभूति क्षेत्र है। इसके भीतर विज्ञानमय कोष है। विज्ञान ही कर्मों का विस्तार करता है। विद्वान विज्ञान की उपासना करते हैं। इसके भी भीतर है- आनंदमय कोष। आनंदमय कोष की कल्पना पक्षी के रूप में की गई है ‘‘प्रिय भाव उसका शिर है। मोद इस पक्षी का दाहिना और प्रमोद बायाँ पंख है। आनंद मध्य भाग है।’’ इस विवेचन में संसार पुरुष के भीतर मुद मोद प्रमोद और आनंद भरा हुआ है। ऐसे में संसार को दुखमय कैसे कह सकते हैं?

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