समर्पित आसक्ति ही जीवन का मूलाधार

किसी व्यक्ति विशेष या वस्तु के प्रति स्वार्थ रहित भावनात्मक समर्पण से जीवन में आनंदानुभूति होती है। साथ ही किसी व्यक्ति, वस्तु एवं कला के प्रति अनुराग तथा लगाव से मानवीय संबंध सुदृढ़ होते हैं। कतिपय विचारक आत्मा के इस लगाव को व उत्तेजना की अवस्था को एक ही मानने का भ्रम पाल लेते हैं, क्योंकि वर्तमान परिवेश में सर्वत्र उत्तेजना ही फैली हुई है। अतः यह शब्द आज सभ्यता और संस्कृति से अधिक घुल-मिल गया है, किन्तु देखा जाए तो जीवन के प्रति आसक्तिजन्य मोह हमारे पास्परिक संबंधों से जुड़ा है, जबकि उत्तेजना तो केवल जीवन की एक क्षणिक अवस्था है। व्यक्ति की यह क्षणिक अवस्था कभी दृष्टिगत होते-होते विलीन हो जाती है। आस्था या अनुराग ऐसी मानसिक अवस्था है जो विपरीत वातावरण में भी स्थिर रहती है।

आस्थामय मधुर संबंध

प्रियजनों से आस्थामय मधुर संबंध बनाये रखना व्यक्ति की भावना पर निर्भर हैं। गहरी आस्था मोह या लगाव होने पर व्यक्ति जीवन पर्यन्त आस्थावान रहकर आराधना करता है। मनोचिकित्सकों की मान्यता है कि सच्ची आस्था होने पर कभी-कभी नहीं होती है। क्योंकि इसका अभिप्राय है व्यक्ति या पदार्थ विशेष पर समस्त भावनाओं का केंद्रीयकरण। प्रिय के प्रति पूर्ण रूप से समर्पण की भावना ही सच्ची आस्था है। बहुत से लोग तो आस्था एवं मोह की तीव्रता से भयभीत हो जाते हैं। इसकी सही अभिव्यक्ति से ही जीवन में यथार्थ आनन्दानुभूति संभव है और जीवन बनता है, उन्नत।

समझदार सचेत व्यक्ति

व्यक्ति को आस्था व आकर्षण के अंतर को जानना जरूरी है। सच्ची आस्था में प्राणी अपना अहम् एवं स्वप्न खो देता है। अतः समझदार सचेत व्यक्ति अपने अस्तित्व को खोने के लिये अनुचित लगाव उत्पन्न नहीं होने देते हैं। प्रायः सभी प्रबुध्द माता-पिता अपनी कन्याओं के मन में आरम्भ से ही ऐसी आस्था पनपाने के लिये प्रयत्नशील रहते हैं कि वे अपने जीवन साथी के प्रति समर्पित भावना से आस्थावान रहें। इसीलिए भारतीय नारी जीवन में पति को परमेश्वर मान कर अपने अस्तित्व को गौण समझकर पति के प्रति पूर्णतया समर्पितत रहती हैं। भले ही उसे कितने ही कष्ट सहने पड़ें।

सुख-दुख का समान महत्व

जीवनोन्नति में सुख-दुखों का समान महत्व है, परन्तु पीड़ा कोई भोगना नहीं चाहता है। व्यक्ति आज आसक्ति के अवगुण मानकर परे रहना पसंद करता है, जबकि सच्ची आस्था व आसक्ति से अनगिनत उपलब्धियां मानव अर्जित करने में समर्थ है। बिना आसक्ति व आराधना के अधिसंख्यक प्रेमी वास्तविक प्रेम नहीं निभा पाते हैं और सहने को विवश हैं पीड़ा और असंतोष। किसी व्यक्ति या वस्तु के प्रति दर्शाये गये ममत्व व लगाव को समाज उचित नहीं मानता और उसकी आलोचना करता है। आस्थावान को उपहास का सामना करना पड़ता है। शर्म संकोच से उन्मुक्त भाव से वह मन के भावों की अभिव्यक्ति भी नहीं कर पाता है। कतिपय सुधारवादियों के मन में धारणा पनपती है कि मानव को अपनी उद्दाम मान्यताओं एवं आकर्षण पर रोक लगानी चाहिए तो कई इसे अनुचित मानते हैं। पर सही यही है कि निष्कपट व्यवहार ही सच्ची आस्था है और इससे ही सामाजिक प्राणी का जीवन सुखद व उन्नत बनता है। इसके विपरीत संकोची का जीवन निषर्कि्रंय और असंतुष्ट रहता है। असंतुष्ट, निष्क्रिय तथा संकोची स्वभावी व्यक्ति सहज स्वाभाविक आनंद से वंचित रहता है। अतः अस्वाभाविक और अमर्यादित आसक्ति जीवन को नारकीय बनाती है जबकि सच्ची आसक्ति तथा निष्कपट व्यवहार ही जीवन को निरापद और आस्थावान बनाता है। स्वार्थ रहित सच्ची आस्था ही जीवन के आनंद का मूल आधार है।

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