आत्मघाती दस्ते की घात से घायल कांग्रेस

प्रभुनाथ शुक्ल

देश की पुरानी पार्टी कांग्रेस और उसके अध्यक्ष राहुल गांधी दल के वरिष्ठ नेताओं की उल-जलूल बयानबाजी से परेशान हैं। चुनावी माहौल में पार्टी के नेता आत्मघाती दस्ते की भूमिका निभाते दिखते हैं। सेना के शौर्य पर सैम पित्रोदा का सवाल इसका उदाहरण है। राहुल गांधी पार्टी में नया जोश भर रहे हैं। वह कांग्रेस को नई ऊंचाइयों पर ले जाना चाहते हैं। लेकिन आला नेता अपनी बेतुकी बयानबाजी से पार्टी की छवि खराब करते दिखते हैं। इसका लाभ सीधे-सीधे भाजपा उठा रही है। 17 वीं लोकसभा के चुनाव का बिगुल बज चुका है। वैचारिक बंटवारे की बात करें तो एक तरफ दक्षिणपंथ तो दूसरे खेमे में सेक्युलरवाद की फौज खड़ी है। दक्षिणपंथ के अधिनायक पीएम मोदी हैं तो सेक्युलरवाद की कमान प्रतिपक्ष के रुप में राहुल गांधी, माया- अखिलेश, ममता बनर्जी, चंद्रबाबू नायडू और वामदल संभाल रहे हैं। पूरा देश सियासी विचाराधारा के दो ध्रुवों में विभाजित है। एक में मोदी समर्थक तो दूसरे में मोदी विरोधी शामिल हैं। लेकिन राहुल गांधी कांग्रेस पार्टी के भीतर ही यु़द्ध लड़ते दिखते हैं। पार्टी में आंतरिक अनुशासन की बात नहीं दिखती है। भाषा और बयानों पर नेताओं का नियंत्रण नहीं है। कहा जाता है कि दूध का जला छांछ भी फूंक कर पीता है। लेकिन कांग्रेस ने चाय और नीच वाले बयान से सबक नहीं लिया। जिसकी वजह से उसे 2014 और गुजरात चुनावों में मुंह की खानी पड़ी थी। कांग्रेस के जिम्मेदार और जबबादेह नेता ही उसकी दुर्गति करा रहे हैं। उनकी तरफ से दिए गए राष्ट्रविरोधी बयान एक तरफ जहां कांग्रेस को कठघरे में खड़े कर रहे हैं। दूसरी तरफ प्रधानमंत्री मोदी उसी को हथियार बना 2019 का रास्ता साफ करने में जुटे हैं। राहुल गांधी जितना रास्ता साफ करते हैं उनके वरिष्ठ नेता गंदगी फैला सारी मेहनत पर पानी डाल देते हैं। अब सैम पित्रोदा का बयान राहुल गांधी के गले की फांस बन गया है। पीएम मोदी और भाजपा उसी को हथियार बना कांग्रेस को घेरने में जुट गए हैं। अब तक वह इसी मसले पर कई बार ट्वीट कर चुके हैं। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह सैम पित्रोदा से माफी की मांग करने लगे हैं। भाजपा एक रणनीति के तहत काम कर रही है। वह विरोधियों के बयान को अपना हथियार बना रही है। इसकी कीमत कांग्रेस को चुकानी पड़ रही है। 2014 के चुनाव में भी मोदी और शाह की टीम ने यही नीति अपनायी थी। तब कांग्रेस को भारी नुकसान उठाना पड़ा था। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और गांधी परिवार के वफादार मणिशंकर अय्यर का चाय वाला बयान पार्टी की किरकिरी करा चुका है। मोदी ने उसी को मुद्दा बना चुनावी सभा में तालियां और वोट बटोरने का काम किया। गुजरात चुनावों में भी इन्हीं ने पीएम मोदी को नीच कहकर लुटिया डुबोई। इसकी वजह से कांग्रेस गुजरात में सत्ता की जीती बाजी हार गई थी। अब सैम पित्रोदा ने एयर स्ट्राइक पर सबूत मांग कर नया बखेड़ा खड़ा कर दिया है। चुनाव के वक्त इस तरह के संवेदनशील एवं नाजुक बयानों से बचना चाहिए। लेकिन कांग्रेस और उसके नेता उसी को अपनी लाइन बना रहे हैं। पार्टी में इस तरह के नेताओं की फेहरिश्त लंबी है। इसमें अधिकांश लोग गांधी परिवार एवं राहुल गांधी के वफादार माने जाते हैं। सैम पित्रोदा कांग्रेस का विजन तैयार करते हैं। राहुल की विदेश यात्रा में वह साथ-साथ रहते हैं। पार्टी के प्रमुख तकनीकी सलाहकारों में उनका नाम है। पूर्व पीएम मनमोहन सिंह के कार्यकाल में वह नेशनल नॉलेज कमिशन के अध्यक्ष रह चुके हैं। भारत में संचार विकास में उनका अहम योगदान है। राहुल गांधी की तरफ से चौकीदार चोर है … का नारा भाजपा की चुनावी जीत का मंत्र बन गया है। देशभर में सोशल मीडिया पर चौकीदार बनने की होड़ मची है। राहुल गांधी आतंकी अजहर मसूद को ‘जी’ कहकर फंस चुके हैं। दिग्विजय भी आतंकी ओसामा बिन लादेन को ‘ओसामा जी’ कह चुके हैं। चुनावी सभाओं में भाजपा ने एयर स्ट्राइक को हथियार बना लिया है। इससे पीएम मोदी को लेकर जनता की सोच तेजी से बदली है। प्रधानमंत्री ने अपनी चुनावी सभाओं में सेना के शौर्य पर सवाले उठाने वाले विपक्ष को घेरना शुरू किया। विपक्ष उसी रणनीति में उलझता गया। भाजपा देशभक्ति के जुड़े इस भावनात्मक मसले को उठा कर काफी आगे निकल चुकी है। उधर, कांग्रेस के नेता बार-बार पुरानी गलती दोहरा रहे हैं। जमीनी सच्चाई तो यही है कि 2019 का चुनाव बगैर मसलों के लड़ा जा रहा है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। दुनिया में ऐसा कोई मुल्क नहीं है जहां के आम चुनाव में बेरोजगारी, महिला सुरक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण, राष्ट्रीय सुरक्षा, अलगाववाद जैसे मसले गायब हों। पूरा चुनाव झूठ के पुलिंदों और खोखले नारों पर लड़ा जा रहा है। विपक्ष के पास जहां नोटबंदी, जीएसटी, राफेल, चौकीदार चोर है… की मिसाइल है तो सत्ता पक्ष राष्ट्रवाद, सेना, अभिनंदन, एयर और सर्जिकल स्ट्राइक की नाव पर सवार है। मुद्दों की असली जमीन खाली है। दलों में दलबदल की बाढ़ आ गयी है। विचारधाराओं की तिलांजलि देकर सियासी महारथी नयी जमीन तलाशने में जुट गए हैं। कांग्रेस और भाजपा दोनों राष्ट्रीय दल हैं। लेकिन दोनों का जनता की भलाई से लेना-देना नहीं है। सत्ता की होड़ उनकी प्राथमिकता में शामिल है। यह स्वस्थ राजनीति के लिए अच्छा संदेश नहीं है। फिलहाल लोकतंत्र में जनता जनार्दन होती है। वह अपना फैसला किसके पक्ष में सुनाती है यह तो वक्त बताएगा। लेकिन राजनीतिक पतन पराकाष्ठा की तरफ बढ़ गयी है।

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