गुर्दे की पथरी है आम बीमारी, बचें कैसे

मानसी के ससुर लगभग साठ वर्ष के हैं। उसने बताया कि उनके कमर में, पेट तथा रीढ़ की हड्डी के आसपास तेज दर्द होता है। चूंकि वे लोग शहर में नए हैं इसलिए मानसी को मैंने तुरंत अपने फैमिली डॉक्टर से मिलने की सलाह दी। जांच के बाद डॉक्टर ने बताया कि उन्हें गुर्दे की पथरी के कारण यह तकलीफ हो रही है। मानसी के ससुर काफी घबराए हुए थे क्योंकि वे आपरेशन करवाने से बहुत डरते हैं। परंतु डॉक्टर ने उन्हें किरणों से इलाज के बारे में बताया तो वे तुरंत इलाज के लिए तैयार हो गए क्योंकि यह इलाज बिना किसी चीरे या दर्द के होता है। आज वे फिर से एक सामान्य जीवन जी रहे हैं। हमारे देश में विशेषकर उत्तरी भारत में गुर्दे की पथरी होना एक आम बात है। यह पथरी गुर्दे के साथ−साथ यूरेटर, गुर्दे की नली तथा मूत्रालय में भी हो सकती है। हर मानवीय शरीर में दो गुर्दे होते हैं जो रक्त को छानकर मूत्र को अलग करते हैं जिससे शरीर में उत्पन्न विभिन्न विष शरीर से बाहर निकाले जा सकें साथ ही ये ब्लडप्रेशर पर भी नियंत्रण रखते हैं। पथरी बनने के कई कारण हो सकते हैं जिनमें सबसे मुख्य है पानी तथा दूसरी तरह के पदार्थों का सेवन कम करना। अत्यधिक गर्म वातावरण और ज्यादा तेज मसालेदार भोजन का सेवन भी इस रोग को निमंत्रण दे सकते हैं। यदि किसी कारण से शरीर से तरल पदार्थों का निरंतर निष्कासन हो रहा हो या किसी कारण से पेशाब के शरीर से बाहर निकलने में रुकावट हो तो भी पथरी होने की संभावना बंद जाती है। बच्चों में विटामिन ए की कमी के कारण पथरी हो सकती है। कुछ रासायनिक पदार्थ जैसे कैल्शियम तथा यूरिक एसिड भी गुर्दे में पथरी बनने की प्रवृत्ति को बढ़ाते हैं। इसलिए कुछ मांसाहारी भोजन जैसे बकरे के मांस जिसमें यूरिक एसिड ज्यादा पाया जाता है, का प्रयोग हानिकारक होता है। कुछ मामलों में पथरी आनुवांशिक भी हो सकती है। अतरू जिन परिवारों में पथरी का इतिहास होता है उन्हें इसके प्रति पूर्णतया सतर्क रहना चाहिए। पथरी का आकार कुछ भी हो सकता है यह पांच मिली मीटर से मुट्ठी के आकार की भी हो सकती है। हालांकि पथरी होने या न होने की पुष्टि तो जांच के बाद ही की जाती है परंतु कुछ ऐसे लक्षण हैं जैसे पेट में तेज दर्द होना। दर्द की स्थिति, पथरी की स्थिति के अनुसार अलग−अलग होती है। यदि पथरी गुर्दे या गुर्दे की नली के ऊपरी हिस्से में हो तो दर्द कमर में, रीढ़ की हड्डी के बाएं या दाहिने ओर होगा। दूसरी ओर यदि पथरी मूत्राशय में हो तो दर्द पेट से निचले हिस्से से होता हुआ जांघों तक फैल जाता है। कभी−कभी दर्द के साथ उलटी भी आ सकती है। बार−बार पेशाब आना तथा पेशाब बंद भी हो सकती है। कई बार स्थिति इतनी बिगड़ जाती है कि पथरी के कारण गुर्दे में पस पड़ जाता है और बुखार होना शुरू हो जाता है। पथरी का शक होते ही तुरंत जांच करवाना उचित रहता है। दूरबीन द्वारा पेशाब की जांच के दौरान पस सैल तथा पेशाब में लाल रक्त कोशिकाओं को देखा जा सकता है। एक्स रे द्वारा प्रायः नब्बे प्रतिशत तक पथरी देखी जा सकती है। गुर्दे के काम करने की स्थिति और पथरी के सही स्थान का पता लगाने के लिए रंगीन एक्स रे (आईवीपी) करवाना जरूरी होता है। यों भी गुर्दे के आपरेशन से पहले दूसरे गुर्दे के काम करने के बारे में मालूम होना चाहिए इसलिए भी गुर्दे की शल्य चिकित्सा से पहले रंगीन एक्स रे जरूरी होता है। अल्ट्रासाउंड स्कैनिंग से पथरी के आकार का पता चलता है साथ ही इससे यह भी पता चलता है कि पथरी कौन सी जगह है तथा यह पेशाब में कितनी रुकावट पैदा कर रही है। जांच पूरी होने के बाद ही यह तय किया जा सकता है कि रोगी का उपचार किस तरीके से किया जाए। बहुत छोटी पथरी जिनका आकार पांच से आठ मिलीमीटर होता है वे प्रायः अधिक मात्रा में तरल पदार्थों के सेवन से पेशाब के साथ बाहर निकल जाती हैं। पहले पथरी का इलाज आपरेशन से किया जाता था जिसमें मरीज को आठ से दस दिन तक अस्पताल में रहना पड़ता था। परंतु अब उपचार में आधुनिक तकनीक के प्रयोग से केवल दो से पांच प्रतिशत लोगों को ही आपरेशन की जरूरत पड़ती है। पीसीएनएल (परक्यूटेनियस नैफ्रो लिथोट्रिप्सी) विधि द्वारा बड़ी पथरियों का इलाज किया जाता है इसमें लगभग एक सेंटीमीटर का चीरा देकर दूरबीन द्वारा पथरी निकाल ली जाती है। यदि पथरियों की संख्या ज्यादा हो तो भी यह विधि कारगर है। इस विधि में सी−आर्म का प्रयोग भी जरूरी है जिससे यह पता लग जाए कि सभी पथरियां निकाल ली गई हैं या नहीं। इसमें मरीज को थोड़ा बेहोश करना पड़ता है और उसे दो तीन दिन अस्पताल में भी रखना पड़ता है। यूरेटरोस्कोपी के द्वारा इलाज के लिए यूरेटरोस्कोप को मूत्रनली द्वारा मूत्राशय से होत हुए यूरेटर में डाला जाता है इसमें भी सी−आर्म और लिथोट्रिप्सी की आवश्यकता होती है। इस विधि में भी मरीज को बेहोश किया जाता है इसमें मरीज को एक दो दिन अस्पताल में रहना पड़ता है। कई बार इस विधि से इलाज के दौरान स्टैटिंग की जरूरत पड़ती है। इसके लिए एक छोटी सी ट्यूब मूत्राशय से गुर्दे तक डाल दी जाती है। यह स्टैंट तोड़ी हुई पथरी को बाहर निकालने में मदद करती है। यह स्टैंट लगभग पन्द्रह−बीस दिन बाद दूरबीन द्वारा निकाली जाती है। लियोट्रिप्सी किरणों द्वारा इलाज के दौरान मरीज को एक खास टेबल पर लिटा दिया जाता है और पथरी को फोकस करके कुछ खास किरणें छोड़ी जाती हैं इससे पथरी छोटे−छोटे टुकडे़ या रेत बनकर थोड़े ही दिनों में पेशाब के साथ बाहर निकल आती है। इस विधि में इलाज बिना दर्द और चीरे के होता है। इस विधि से इलाज करवाने में प्रायः दवाइयों की जरूरत नहीं पड़ती। परंतु यह जरूरी है कि मरीज ज्यादा से ज्यादा तरल पदार्थो का प्रयोग करे, कुछ लोगों में यह भावना पाई जाती है कि किरणों द्वारा इलाज कराने से पथरी पुनः उभर आती है परंतु यह सोच बिल्कुल गलत है। पथरी के दुबारा उभर आने का कारण इलाज के बाद तरल पदार्थों का उचित मात्रा में सेवन नहीं करना होता है न कि इलाज का कोई विशेष तरीका। इसलिए इलाज करवाने के बाद भी तरल पदार्थों का उचित मात्रा में प्रयोग अवश्य करना चाहिए।

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